साल था 1895... पेरिस की एक सभा में लूमियर ब्रदर्स ने जब इंजन ट्रेन को पर्दे पर दौड़ाया, तो भला कौन जानता था कि ये एक ऐसे सफर की शुरुआत थी, जिसने सदियों तक करोड़ों दिलों पर राज करना था।
By: Star News
Jun 30, 20254 hours ago
"नज़ारा" - एक ब्लैक एंड व्हाइट कैमरा, और पर्दों पर उभरती धुंधली तस्वीरें... धीमा संगीत
स्टार समाचार वेब. मनोरंजन डेस्क
साल था 1895... पेरिस की एक सभा में लूमियर ब्रदर्स ने जब इंजन ट्रेन को पर्दे पर दौड़ाया, तो भला कौन जानता था कि ये एक ऐसे सफर की शुरुआत थी, जिसने सदियों तक करोड़ों दिलों पर राज करना था।
"पहला शॉट" - मुंबई के वाटसन होटल का शानदार दृश्य, लोग उत्सुकता से टिकट ले रहे हैं
कट टू 1896, 7 जुलाई, बंबई का वाटसन होटल...
लूमियर ब्रदर्स ने इतिहास रच दिया! सिर्फ एक रुपये में, बंबई का संभ्रांत वर्ग उस जादू का गवाह बना, जिसे हम 'भारतीय सिनेमा' कहते हैं। तालियों की गड़गड़ाहट और "वाह-वाह" की गूंज ने एक नए युग का ऐलान किया। यह महज़ एक शो नहीं था, ये एक स्वप्निल सफर का पहला कदम था। लोगों के इस जोश को देख, नॉवेल्टी थिएटर में यह 'तमाशा' फिर सजा, और फिर शुरू हुआ वो दौर, जहाँ 'चवन्नी' से लेकर बड़ी टिकटों तक, हर वर्ग का दर्शक इस नए जादू में खो गया। रूढ़िवादी बेड़ियाँ टूटीं, और "जनाना शो" भी शुरू हुए, ताकि हर महिला इस सिनेमाई दुनिया का हिस्सा बन सके। कौन जानता था, यही 'चवन्नी वाले' एक सदी बाद, इस पूरी इंडस्ट्री के भाग्य विधाता बनेंगे!
"मंज़िल की तलाश" - तम्बू के अंदर बाइस्कोप चल रहा है, चारों ओर भीड़
कुछ साल बाद, 1902... अब्दुल्ली इसोफल्ली और जे. एस. मादन जैसे सपने देखने वाले उद्यमी, तम्बू लगाए बाइस्कोप का जादू लेकर गाँव-गाँव घूमने लगे। बर्मा से सीलोन तक, उन्होंने सिनेमा के वितरण का एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर दिया। शुरुआती दिनों में पर्दे के पीछे एक पियानो या हारमोनियम बजता था, जिसकी धुन प्रोजेक्ट्रर की घरघराहट में अक्सर गुम हो जाती थी। लेकिन आयातित फिल्मों का वो शुरुआती आकर्षण जल्द ही फीका पड़ने लगा...
"हीरो की एंट्री" - एक भारतीय कैमरा, देसी कहानियाँ फिल्माते हुए
दर्शकों की नब्ज़ समझने वाले भारतीय सिनेमा के भाग्य विधाता सामने आए! 1901 में, 'सावे दादा' के नाम से विख्यात एच.एस. भटवाड़ेकर ने पहली बार भारतीय कहानियों और 'न्यूज रीलों' को कैमरे में कैद किया। यूरोपियन और अमेरिकी कंपनियाँ भी दौड़ी चली आईं, भारत में शूट की गई भारतीय न्यूज रीलें दिखाकर मुनाफा कमाने! कलकत्ता के क्लासिक थिएटर में हीरालाल सेन ने 1901 में 'अलीबाबा', 'बुद्ध' और 'सीताराम' जैसे नाटकों की पहली बार फोटोग्राफी की। क्योंकि विदेशी कहानियों से भारतीय दर्शक खुद को जोड़ ही नहीं पा रहे थे।
"राजतिलक" - दादासाहेब फाल्के की तस्वीर, 'राजा हरिश्चंद्र' का पोस्टर
और फिर आया वो पल... 1912! आर. जी. टोरनी ने आयातित कैमरे और फिल्म स्टॉक से हिंदू संत 'पुण्डलिक' पर एक नाटक फिल्माया - शायद भारत की पहली फुललेंथ फिल्म!
पर भारतीय सिनेमा के 'पितामह' तो कोई और ही थे... साल 1913, जब दादासाहेब फाल्के ने "राजा हरिश्चन्द्र" का सृजन किया, तब भारतीय सिनेमा ने अपना पहला कदम उस भव्य दुनिया में रखा, जहाँ आज हम हैं!
"आवाज़ का जादू" - आलम आरा का पोस्टर और गाने की धुन
फिर आया आवाज़ का जादू! 1931 में अर्देशिर ईरानी ने "आलम आरा" बनाई, और पर्दों पर सिर्फ परछाईं नहीं, बल्कि आवाज़ें भी गूंजने लगीं! ये फिल्म इतनी मकबूल हुई कि रातों-रात सारी फिल्में 'बोलती' हो गईं।
"वक्त का पहिया" - आज़ादी, बँटवारा, प्रेम, एक्शन... बदलते दौर
आने वाले दशकों में सिनेमा ने देश का दर्द भी महसूस किया। स्वतंत्रता संग्राम, देश विभाजन... हर ऐतिहासिक घटना का असर पर्दे पर छाया रहा। 1950 के दशक में श्वेत-श्याम दुनिया रंगीन हो गई, जहाँ प्रेम की कहानियाँ और मधुर संगीत फिल्मों की जान बन गए। 60-70 के दशक में हिंसा ने परदे पर दस्तक दी, 'एंग्री यंग मैन' का उदय हुआ। पर फिर 80 और 90 के दशक में, प्रेम आधारित कहानियों ने वापसी की, और दिलों पर राज करने लगीं। 90 से 2000 के दशक तक तो, हिंदी सिनेमा ने सरहदें भी लांघ दीं! प्रवासी भारतीयों की बढ़ती संख्या के साथ, हमारी कहानियाँ विदेशों में भी धूम मचाने लगीं, और भारतीय सिनेमा का डंका दुनिया भर में बजने लगा!
"पर्दा गिरता है" - एक भव्य बॉलीवुड सेट का दृश्य
तो ये थी एक सदी की कहानी... उस एक रुपये के टिकट से लेकर ग्लोबल पहचान तक... भारतीय सिनेमा का सफर जारी है, और हर गुज़रता दिन एक नई कहानी लिख रहा है... एक ऐसी कहानी, जिसका 'द एंड' कभी नहीं होगा!