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हर रविवार... स्टार स्ट्रेट, सियासी और नौकरीशाही की अंदर की खबर

स्टार समाचार में हर रविवार प्रकाशित कॉलम स्टार स्ट्रेट

By: Star News

Aug 17, 20251:01 PM

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हर रविवार... स्टार स्ट्रेट,  सियासी और नौकरीशाही की अंदर की खबर

सीनियरिटी औऱ सौजन्य की कुर्सी हिली...

मंत्रालय की गलियारों की "गपशप गाथा" तो वैसे भी कभी फीकी नहीं पड़ती, लेकिन इस बार तो वाक्या ही कुछ ऐसा हुआ कि सीनियरिटी और सौजन्य दोनों की कुर्सी हिल गई। ऐसा लग रहा है कि मंत्रालय में अब कैडर की इज्जत और सीनियरिटी का भाव शायद इतिहास की फाइलों में ही ढूंढना पड़ेगा। किस्सा यूं है कि एक प्रमुख सचिव (पीएस) साहब को जिस विभाग में पदस्थापना मिली, वह पहले एसीएस स्तर के अधिकारी के प्रभार में था। पीएस महोदय ने पदभार संभालते ही एसीएस के उस कक्ष पर अपनी नेमप्लेट लगवा दी, यह जाने  बिना कि एसीएस साहब के लिए प्रभार वाले विभाग के कक्ष के अतिरिक्त मंत्रालय में कोई दूसरा कक्ष है भी या नहीं। कक्ष से बेजार एसीएस महोदय की इस तरह से बेदखली का मामला जब मुख्य सचिव तक पहुंचा, तो उन्होंने भी गेंद विभाग के पाले में डाल दी। फिर, क्या था पदस्थापना विभाग में कक्ष तलाशी अभियान चलाया गया और आनन-फानन में एसीएस के लिए पुरानी बिल्डिंग में नया कक्ष ढूंढा गया, जिसमें एसीएस महोदय तो विराजमान हो गए, लेकिन यह पूरा वाकया मंत्रालय में एक कड़वी सच्चाई उघाड़ गया—अधिकारियों के बीच से सौजन्य और सम्मान की दीवार ढहती जा रही है।

करीबी की तलाश और उल्टा असर

भाजपा में निजाम बदले तो नेताओं की पहली फिक्र यही हो गई कि साहब के करीबी कौन हैं? सबको बस इतना ही सूझ रहा है कि अगर करीबी साध लिए तो मंज़िल अपने आप पास आ जाएगी। इसके लिए नेताओं ने तरकीब भी भिड़ाई और अपने साथ के छुटभैये नेता पार्टी दफ्तर में ही तैनात कर दिए, हुक्म ये था कि साहब का कोई खासोआम दिखे तो तुरंत खबर देना।लेकिन अफसोस... लालटेन लेकर ढूंढने पर भी नए निजाम का करीबी मिला ही नहीं। उल्टा हुआ ये कि बार-बार दफ्तर में मंडराते छुटभैये नेता खुद ही निजाम की नजरों में चढ़ गए। साहब ने तड़पकर पूछ लिया यहां बार-बार क्यों दिखते हो? क्षेत्र में जाकर काम क्यों नहीं करते? अब बेचारे छुटभैये नेता बगलें झांकते हुए मन ही मन नेताजी को कोस रहे हैं हम आए थे आपके लिए खबरी बनकर, और निशाने पर हम ही आ गए। कार्यालय के गलियारों में कानाफूसी यही है नए निजाम के करीबी की तलाश में लगे लोग भूल गए कि असल में साहब का करीबी कोई नहीं...लेकिन, नाराजगी किसी को भी मिल सकती है।

हरियाणा ने बचाया, गुजरात से डराया

कांग्रेस की बहुप्रतीक्षित जिला अध्यक्षों की सूची जैसे ही शनिवार को आई, मप्र के क्षत्रपों के चेहरे पर बहार आ गई। दरअसल, साहब लोगों की धुकधुकी कुछ दिनों से तेज चल रही थी। डर ये था कि अगर “गुजरात माडल” लागू हो गया तो हाल वही होता जो गुजरात में हुआ था, जहां प्रदेश अध्यक्ष शक्ति सिंह गोहिल से लेकर कई दिग्गज अपने ही जिले में अध्यक्ष नहीं बनवा पाए। यानी, अपनी ही धरती पर बेगाने होने का खतरा! पर भला हो “हरियाणा माडल” का। वहां हाल ही में जब जिला अध्यक्षों की सूची निकली तो क्षत्रपों के इलाकों का पूरा ध्यान रखा गया। अब जब मप्र के जिला अध्यक्षों की सूची जारी हुई तो नेताओं ने राहत की सांस ली चलो, हरियाणा वाला रास्ता अपनाया गया, वरना गुजरात से तो गाज गिरनी तय थी। मप्र के कांग्रेस गलियारों में अब तंज चल रहा है संगठन की लिस्ट देखकर समझ आ गया कि यहां अभी भी क्षत्रपों की दाल गलती है... नहीं तो गुजरात माडल में तो दाल जल ही जाती है।

बिक रहा है बजट... बोलो खरीदोगे?

मप्र में सही ईमानदारी के ब्रांड एंबेसडर  उपमुख्यमंत्रीद्वय के विभागों की हालत इन दिनों चर्चा में है। स्टाफ ने तो वैसे ही बंटाढार कर रखा था, अब विभाग के प्रशासनिक मुखिया ने भी कमाल दिखाना शुरू कर दिया है। कहते हैं साहब ने जिले-दर-जिले बजट का आवंटन ही खुली नीलामी में डाल दिया है। सप्लायरों की तो पो बारह हो गई, जिसने ज्यादा बोला, उसी की झोली भर डाली। यानी अब बजट किताबों में नहीं, बोली में बिक रहा है। कारपोरेशन और कारोबारियों में कानाफूसी चल रही है नए साहब तो मानो 20-20 खेलने आए हैं... चौके-छक्के पर ज्यादा भरोसा है, विकेट संभालने का धैर्य नहीं। मगर असली चोट जनता की जेब और सेहत पर पड़ रही है। और जब ये खेल किसी सेहत से जुड़े महकमे में खेला जाए तो समझ लीजिए कि बीमारी से ज्यादा घातक इलाज” साबित होने वाला है। अब इंतजार सिर्फ उस दिन का है जब ईमानदार महोदय की नजर इस खेल पर पड़ेगी और जानकार कह रहे हैं, वो दिन ज्यादा दूर नहीं... उस दिन ईमानदार साहब के हाथों 20-20 पारी वाले साहब की पारी एक झटके में खत्म हो जाएगी।

और अंत में... तिरंगे के नाम पर तपती सज़ा

मप्र में जगह-जगह तिरंगा यात्राओं की धूम रही। राजधानी भोपाल भी जनप्रतिनिधियों ने पूरे जोश से तिरंगा यात्रा निकाली, यह वाकई अच्छी बात है। यात्रा को सफल बनाने के लिए स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों को भी सड़कों पर खड़ा कर दिया गया, बुराई इसमें भी नहीं है..यह भी अच्छी बात है। लेकिन साहब, तस्वीर का दूसरा पहलू जरा कड़वा है। चार–पांच घंटे पहले से उमस और धूप में बच्चों को सड़कों पर तैनात क्यों कर दिया गया।  ये मासूम स्कूल के बच्चे थे, कालेज के छात्र थे, धूप से बचने की कोशिश में छांव खोजते रहे, पानी मांगते रहे, मगर प्रबंधन लाचार था बताते हैं क्योंकि नेता जी का प्रबंधन और प्रबंधन का बच्चों पर इतना दबाव था कि जैसे कि उधर होने की भी मनाही हो। आखिर भीड़ दिखाई तो दी, पर यह भीड़ सिर्फ कार्यकर्ताओं की नहीं थी। बहरहाल, भीड़ से भाग्य जगाने की नेताजी की लालसा बच्चों पर भारी पड़ी। तिरंगा यात्रा तो सफल हो गई... बस मासूमों की धूप के दर्द की परीक्षा बेवजह ही हो गई, लेकिन दोष किसे दें? समरथ को नहीं दोष गुसाई। नेताजी ने टाइम मैनेजमेंट किया होता तो यह दोष भी नहीं लगता।

(दृश्य गवाह हैं)

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