शारदीय दुर्गा पूजा केवल आस्था का उत्सव नहीं, बल्कि परंपरा और प्रतीकों की गहरी परतों से बुना हुआ सांस्कृतिक महाकाव्य है। निषिद्ध पल्लि की मिट्टी से मूर्ति गढ़ने की रीति से लेकर कोला बऊ की स्थापना और सामुदायिक पूजा की ऐतिहासिक जड़ों तक-यह पर्व हमें बताता है कि दिव्यता केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि समाज की हर परत और हर जीवंत संबंध में निवास करती है।
By: Arvind Mishra
Sep 23, 202510:48 AM
कमलाकर सिंह
शारदीय दुर्गा पूजा केवल आस्था का उत्सव नहीं, बल्कि परंपरा और प्रतीकों की गहरी परतों से बुना हुआ सांस्कृतिक महाकाव्य है। निषिद्ध पल्लि की मिट्टी से मूर्ति गढ़ने की रीति से लेकर कोला बऊ की स्थापना और सामुदायिक पूजा की ऐतिहासिक जड़ों तक-यह पर्व हमें बताता है कि दिव्यता केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि समाज की हर परत और हर जीवंत संबंध में निवास करती है। दुर्गा पूजा को अक्सर बंगाल का सबसे भव्य सांस्कृतिक उत्सव और भारत का महानतम सामुदायिक पर्व कहा जाता है। लेकिन चमचमाते पंडालों, ढाक की ताल और रंगीन शोभा यात्राओं से परे इस शरदोत्सव में अनेक ऐसे अल्पज्ञात आयाम छिपे हैं जो इसके सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्व को और भी गहरा बनाते हैं। शरद ऋतु में मनाई जाने वाली दुर्गा पूजा वस्तुत: देवी की ‘अकाल’ पूजा है।
शास्त्रों में इसकी वास्तविक अवधि वसंत ऋतु कही गई है जिसे बसंती पूजा कहा जाता है। शरद ऋतु में पूजा की परंपरा रामायण से जुड़ी है, जब भगवान राम ने रावण के विरुद्ध युद्ध से पूर्व देवी दुर्गा का आह्वान किया। यह समय परंपरागत पूजा काल से बाहर था, इसलिए इसे अकाल बोधन- अर्थात ‘असमय की पूजा’ कहा गया। यही प्रसंग इस पर्व को उसका समय प्रदान करता है और असाधारण संकट की घड़ी में दिव्य हस्तक्षेप की थीम भी देता है। दुर्गा पूजा की कुछ परंपराएं अपने भीतर गहन प्रतीकात्मक अर्थ समेटे हुए हैं। उनमें से एक है निषिद्ध पल्लि-जैसे वेश्यालय-से मुट्ठीभर मिट्टी लाकर मूर्ति निर्माण में उसका प्रयोग करना। विश्वास है कि ऐसे स्थान पर जाने वाला पुरुष अपनी शुद्धता द्वार पर ही छोड़ देता है, और इसीलिए यह मिट्टी पवित्र मानी जाती है। यह रिवाज सामाजिक समावेशन और प्रायश्चित्त का संदेश देता है कि पवित्रता और मुक्ति समाज के हाशिये से भी उत्पन्न हो सकती है।
मूर्ति निर्माण का एक और अहम क्षणचक्षु दान है, जब षष्ठी के दिन मूर्तिकार देवी की आंखें अंकित करता है। इसे देवी के मूर्तिरूप में आत्मा के प्रवेश का प्रतीक माना जाता है। उतना ही आकर्षक है कोला बऊका स्वरूप-एक केले का पौधा जिसे स्नान कराकर लाल-पाड़ साड़ी पहनाई जाती है और गणेशजी के पास रखा जाता है। इसे प्राय: गणेश की पत्नी समझा जाता है, किंतु वास्तव में यह स्वयं दुर्गा का जीवंत रूप है, जो उर्वरता, ऊर्जा और प्रकृति की पोषण शक्ति का प्रतीक है। दुर्गा पूजा कला और सामाजिक व्यवहार का भी बदलता हुआ इतिहास है। एक-छालामूर्ति, जिसमें दुर्गा और उनके चारों संतानों को एक ही संरचना में दर्शाया जाता है।
पारिवारिक एकता का दिव्य प्रतीक है। डाकेर सजनामक झिल-मिलाते अलंकरण जर्मनी से आयातित चांदी के वर्क से बनाए जाते थे, जो डाक से आया करते थे, और वहीं से यह नाम पड़ा। इसी तरह कुमारी पूजा में कन्या रूप में देवी की आराधना की जाती है। यह प्रथा प्राचीन है परंतु 1901 में स्वामी विवेकानंद ने इसे बेलूर मठ में औपचारिक रूप से आरंभ किया, जो स्त्री शक्ति की पवित्रता और सम्मान का उद्घोष है। इतिहास में पशु बलि पूजा का हिस्सा रही है, किंतु समय के साथ उसका स्वरूप बदला। आज कई पूजा समितियां इसका प्रतीकात्मक विकल्प अपनाती हैं-जैसे कद्दू या अन्य सब्जियों की बलि देकर महिषासुर वध का नाट्य रूपांतरण किया जाता है। इसी प्रकार देवी के आगमन और प्रस्थान का वाहन भी आने वाले वर्ष की स्थिति का संकेत माना जाता है। यदि वह हाथी पर सवार होकर आती हैं तो यह समृद्ध फसल का सूचक है, जबकि अन्य वाहन उतने शुभ नहीं माने जाते।
शारदीय पूजा की सबसे स्थायी विरासत उसकी सामुदायिकता है। पहली संगठित बारो-यारी पूजा 1790 में गुप्तिपाड़ा, पश्चिम बंगाल में बारह मित्रों द्वारा सामूहिक सहयोग से आयोजित की गई थी। वहीं से सामूहिक अंशदान और सहभागिता की परंपरा आरंभ हुई, जो आगे चलकर आज के सर्वजनिन पूजा पंडालों का स्वरूप बनी-जहां विविध समुदाय एक ही छत के नीचे भक्ति, कला और आनंद में डूब जाते हैं। इस प्रकार दुर्गा पूजा केवल रोशनी, ध्वनि और दृश्य वैभव का पर्व नहीं है। यह परंपराओं का भंडार है- कुछ प्राचीन, कुछ नवीन, परंतु सभी गहरे प्रतीकात्मक, जो भारतीय समावेशन, सामूहिकता और सहनशीलता की भावना को प्रतिबिंबित करती हैं। इन कम ज्ञात पहलुओं से जुड़ना केवल एक धार्मिक अनुष्ठान को समझना नहीं है, बल्कि एक जीवंत संस्कृति से संवाद करना है, जहां दिव्यता केवल मंदिरों और मूर्तियों में ही नहीं, बल्कि धरती की मिट्टी में, एक मासूम मुस्कान में और उत्सव में एकजुट समुदाय की शक्ति में भी निवास करती है।
लेखक- पूर्व कुलपति, भोपाल