साप्ताहिक कॉलम
By: Star News
Jul 13, 202510:16 AM
मध्यप्रदेश भाजपा ने बड़े यत्न से 'संस्कार पाठशाला' चलाई थी, उम्मीद थी कि माननीयों की बेलगाम ज़ुबान पर लगाम लगेगी, और जो बोल बचन पार्टी की छवि बिगाड़ते हैं, उन पर ब्रेक लगेगा। लेकिन ट्रेनिंग के ठीक एक महीने बाद ही कुछ माननीय ऐसे पुराने ढर्रे पर लौटे कि लगा जैसे पाठशाला में सिर्फ हाजिरी दी थी, पाठ तो एग्ज़ाम सेंटर तक पहुँचने से पहले ही उड़नछू हो गया! हैरानी की बात ये कि जो ज़ुबान अब फिसल रही है, वो उन 'वरिष्ठ' मंत्रियों की है, जो खुद को अनुभवी नेताओं की कैटेगरी में गिनते हैं। कई बार सांसद रह चुके हैं, और अब मप्र की काबीना में हैवीवेट पोर्टफोलियो भी संभाल रहे हैं। सड़कों के गढ्डे को लेकर दिए बयान में ऐसे जुबान ऐसी चली कि रायता ही फैल गया। रही सही कसर विंध्य के एक नवोदित सांसद ने पूरी कर दी। उन्होंने भी जनता की मांग का तमाशा बना डाला। जनता सकते में, पार्टी के चेहरे पर शिकन, और विरोधी खेमा ताली बजा-बजा कर मज़े ले रहा है। भीतरखाने अब चर्चाएं गर्म हैं कि आख़िर कौन-सा आयुर्वेदिक नुस्खा अपनाएं कि माननीयों की ज़ुबान फिसले भी नहीं, और भटके भी नहीं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम में यूं तो दर्जनों मंत्री हैं, कई पुराने और कुछ नए भी, दौरे पुराने भी करते हैं और नए भी, लेकिन एक केंद्रीय मंत्री जी की बात ही निराली है। वो अभी भी पुराने ही भाव में है जब पूरा प्रदेश उनका हुआ करता था। लेकिन पार्टी ने उनकी प्रतिभा को देख प्रदेश से बाहर अब देश सेवा का मौका दिया है, पर मिजाज और शानो-शौकत वही प्रदेश वाली बनी हुई है.. मंत्री जी जहां भी जाते हैं, उनकी अर्धांगिनी साथ-साथ जाती हैं। दौरा निजी हो तो समझ में आता है, संसदीय क्षेत्र का हो तो भी तर्क बनता है। लेकिन यदि सरकारी दौरा वो भी भारत भ्रमण वाला हो और उसमें भी मंत्री महोदय अकेले न जाकर पारिवारिक उपस्थिति दर्ज कराएं, तो फिर सवाल उठना लाज़मी है। अब मंत्रालयी गलियारों में कानाफूसी है कि "क्या सरकारी दौरे का स्वरूप बदल गया है?""किस नियम में यह प्रावधान है कि मंत्रीजी के साथ उनके परिजन भी हर मंच और हर समीक्षा यात्रा में रहें?" कुछ अधिकारी दबी जुबान में कह रहे हैं "यदि सरकारी दौरे व्यक्तिगत संग-साथ के मंच बन जाएं, तो फिर सरकारी प्रोटोकॉल की सीमाएं किसके लिए हैं?"और विपक्षी खेमे से यह भी फुसफुसाहट है " इस तरह से सरकारी संसाधनों का उपयोग अब निजीकृत भावना से किया जाएगा?" अधिकारी भी पूछ रहे हैं क्या यह छूट सरकारी दौरों पर उनको भी परिवार साथ लेकर जाने के लिए मिलेगी।
मध्यप्रदेश में मैदानी अधिकारियों का बड़ा प्रशासनिक फेरबदल घोषणाओं की लिस्ट में है, आदेशों की नहीं! पिछले दिनों एक प्रतीक्षित सूची आई भी, लेकिन उसमें सिर्फ मंत्रालय के उच्चाधिकारियों के नाम टंगे थे। मैदानी अफसरों की सांसें अब भी फाइलों में फंसी हुई हैं। सूत्रों के मुताबिक, मंत्रालय के चौथे माले पर लगी ब्रेक की ताकत इतनी जबरदस्त है कि दो बार भेजी गई जंबो लिस्ट भी “एक बार में इतने नहीं” कहकर वापस कर दी गई। अब मैदानी अधिकारी गिनती का गणित लगाने में व्यस्त हैं “सूची को कितना छोटा करें कि साहब की प्राथमिकता में फिट बैठे?” कुछ अधिकारी तो अब ग़लतफहमी में हैं कि फेरबदल की सूची बन रही है या कक्षा दो के छात्रों की हाजिरी! सवाल यह नहीं कि सूची लंबी है या छोटी, सवाल यह है कि नियमों की मंशा तय होगी या मिज़ाज से चलेगा प्रशासन?
मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाली एक जांच एजेंसी ने स्वास्थ्य विभाग के एक रिटायर्ड कर्मचारी पर अकूत संपत्ति के आरोप में जब छापामार कार्रवाई की, तो कागजों के साथ-साथ गाड़ियों की कतारें भी बरामद हो गईं। माना गया कि मामला बड़ा है, जांच भी बड़ी होगी। लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि निजाम साहब का सुर ही बदल गया। और जब निजाम साहब तबादले की मार से एजेंसी से हटाकर मूल विभाग में एक कोने में कर दिए गए। तब दबी जुबान में चर्चा शुरू हो गई कि जैसे आबकारी अधिकारी के छापे में एजेंसी ने ‘केस को कमजोर’ करने की कोशिश की थी, कुछ वैसा ही सैंपल टेस्टिंग इस मामले में भी हो रहा है। फर्क सिर्फ इतना कि इस बार कोई तिरछी नजर रोकने सामने नहीं आई। अंदरखाने से खबर है कि साहब ने बेनामी इनोवा को बड़ी सफाई से अपने नाम की पार्किंग में उतार लिया और सौदा सधे हाथों से पट गया। अब ‘हेल्थ डिपार्टमेंट’ वाले की थोड़ी वेल्थ तो चली गई, लेकिन हेल्थ अभी फिट है! जांच धीमी, नीयत ढीली और फाइलों पर धूल है। बाकी सब सेटिंग में कूल है।
वैसे तो सरकारें लोक कल्याण करती ही हैं, लेकिन जब कल्याण की घड़ी भी पहले से देख ली जाए, तो समझिए राजनीति में सिर्फ नीति नहीं, घड़ी की सुई भी मायने रखती है। मध्यप्रदेश के मुखिया ने लाड़ली बहना योजना में राखी आने से पहले ही बहनों के खातों में शगुन भेजने का कह दिया है.. “भाई वही जो वक़्त से पहले बहनों का ख्याल रखे।” यह योजना तो देश के कई राज्यों में चल रही हैं, लेकिन आधी आबादी के मन को सबसे पहले किसने पढ़ा, इस सवाल का जवाब फिलहाल प्रदेश से बाहर नहीं दिखता। इस 'समयपूर्व स्नेह' का असर यह हुआ कि अब राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहट है “अगर नए भाई ऐसे ही आगे बढ़ते रहे तो बहनों की स्मृति से पुराने रिश्ते धुंधले न पड़ जाएं...वो पुराने भाई, जो कभी मामा कहलाना पसंद करते थे।”