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भगवत् गीता का प्रचार मनुष्य मात्र का अधिकार चाहे वह किसी भी वर्ण आश्रम में स्थित हो

श्रीमद्भागवत गीता, महाभारत के भीष्म पर्व का एक भाग है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध-क्षेत्र में आत्म-ज्ञान, कर्तव्य और मोक्ष के मार्ग का उपदेश देते हैं। गीता आत्मा की अमरता और उसके वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करती है, जिससे व्यक्ति अपने अस्तित्व के मूल को समझता है।

By: Ajay Tiwari

Nov 30, 20259:12 PM

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भगवत् गीता का प्रचार मनुष्य मात्र का अधिकार चाहे वह किसी भी वर्ण आश्रम में स्थित हो

डॉ. जागेश्वर पटले

गीता सुगीता कर्तव्या, किमन्यै:  शास्त्र विस्तारै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्याद् विनि:श्रितम्।।

श्रीमद्भागवत गीता, महाभारत के भीष्म पर्व का एक भाग है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध-क्षेत्र में आत्म-ज्ञान, कर्तव्य और मोक्ष के मार्ग का उपदेश देते हैं। गीता आत्मा की अमरता और उसके वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करती है, जिससे व्यक्ति अपने अस्तित्व के मूल को समझता है। गीता कर्म करने का अधिकार और फल की आशा न रखने का सिद्धांत प्रस्तुत करती है, जो दैनिक जीवन में संतुलन बनाने का सेतु है। युद्ध-संकट में भी धर्म का पालन करने की प्रेरणा देती है, जिससे सामाजिक और व्यक्तिगत नैतिकता मजबूत होती है।

भगवान कृष्ण को सर्वभौमिक ईश्वर के रूप में प्रस्तुत कर, भक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति को उजागर करती है। गीता के उपदेश समय-सापेक्ष हैं, वे आज के तनाव, निर्णय-संदेह और आध्यात्मिक शून्य को भरने में सहायक होते हैं। इन कारणों से गीता न केवल हिंदू धर्म का प्रमुख ग्रंथ है, बल्कि विश्वभर में दार्शनिक, वैज्ञानिक और विचारकों द्वारा अध्ययन किया जाता है। गीता प्रबंधन शास्त्र है। गीता में प्रबंधन के महत्वपूर्ण सूत्र हैं, जैसे ध्यान लक्ष्य पर परिणाम पर नहीं। कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन। कार्य में कुशलता अर्थात एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं- अमरीका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन कहते हैं कि यदि मुझे एक बड़ा पेड़ काटने के लिए 6 घंटे का समय दिया जाए, तो मैं पहले 4 घंटे कुल्हाड़ी को धार देने में लगाऊंगा, क्योंकि ऐसी धारदार कुल्हाड़ी के साथ पेड़ काटने के लिए शेष 2 घंटे काफी होंगे। यह तैयारी या प्लानिंग के लिए दिए गए समय के संदर्भ में भी सत्य है।

प्रबंधक को जो कार्य सौंपा जाता है, उसे ही पूरा करना उसका प्राथमिक कर्तव्य है। अत: प्रबंधक को अपनी संपूर्ण ऊर्जा को उस कार्य में लगाकर सफल होने का प्रयास करना चाहिए। यह तनाव प्रबंधन का भी शास्त्र है, जैसे वर्तमान समय में जब तनाव बढ़ता ही जा रहा है ऐसे में तनाव प्रबंधन में श्रीमद्भागवत गीता की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। युद्धक्षेत्र में अर्जुन ने जब अपने सगे संबंधियों को अपने सामने देखा तो मानसिक अवसाद की स्थिति में पहुंच गए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देकर और मानसिक सलाहकार बनकर उनकी सहायता की। अर्जुन को कायरता और दुर्बलता का त्याग करना और कठिनाइयों का सामना करने का व इसी प्रकार मनुष्य जाति को कठिनाइयों का सामना करने का और संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। 

सुखदु: खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय यु’यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।

गीता में गृहस्थ धर्म को उन्नत करने त्याग अहिंसा प्राणियों के प्रति दया विनम्रता ल’जा एवं व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव और सात्विक आहार संतुलित आहार ,युक्तायुक्त आहार विहारस्य के बारे मार्गदर्शन मिलता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में गीता से हमें सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त होते हैं। गीता से मनुष्य स्वयं ही रोग और मृत्यु का मूल कारण होता है। यह एक शाश्वत प्रश्न रहा और रहेगा कि आखिर मनुष्य को रोग क्यों होते हैं? उसकी मृत्यु क्यों होती है? भगवान बुद्ध को भी इन्हीं प्रश्नों ने घर बार छोडक़र इनके उत्तर पाने के लिए प्रवृत्त किया। इन्हीं प्रश्नों ने लुई पास्चर जैसे फ्रेंच वैज्ञानिक को शोधकार्य में लगाया। तात्पर्य यह है कि इन प्रश्नों ने ऋषियों-मुनियों वैज्ञानिकों को ही नहीं सामान्य लोगों को भी झकझोरा है। उन्हें विचार करने के लिए बाध्य किया है। किसी निष्कर्ष पर आने के लिए प्रोत्साहित किया है। आज जितना अधिक चिंतन हुआ इन प्रश्नों के उत्तर क्षितिज की तरह दूर रखते गए मनुष्य रोगग्रस्त होता गया और मरता भी गया। कोरोना काल में लाखों लोगों की मृत्यु कोविड-19 वायरस के कारण हो गई और उसके पहले स्वाइन फ्लू से भी लोग मारे गए। व्यक्ति जितना शारीरिक और मानसिक रोगों से पीडि़त है उसका कारण वह स्वयं है। यद्यपि प्रारब्धजन्य भी रोग होते हैं उनका संबंध हमारे पूर्वजन्म कर्मों से होता है, परंतु जो रोग हमारी वर्तमान अव्यवस्थित खानपान और आचरण के द्वारा होते हैं उसके कारण हम स्वयं ही होते हैं। दिनचर्या का अव्यवस्थित होना। मनुष्य के जीवन में रोगों और अकाल मृत्यु का कारण बनता जा रहा है।

नात्यश्नतस्तु योगोस्ति न चौकन्तमनश्श्रत:।
न चातिस्वत्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन:।।

श्रेष्ठ गुणों का पालन और मनुष्य को अपने दीर्घ जीवन व निरोग रहने के लिए आसुरी गुणों का त्याग करना चाहिए। श्रेष्ठ गुणों के विकास से ही मानव का उत्थान संभव है, इसलिए भगवान श्री कृष्ण बोलते हैं- भय का सर्वथा अभाव अन्त: करण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए ध्यान योग,  दान, इंद्रियों का दमन, यज्ञस्वाध्याय, कत्र्तव्यपालन, कष्टसहना, वाणी की सरलता, अहिंसा प्रियभाषी, क्रोध न करना, अहम कामना आदि का त्याग। अंत:करण में व्रतियों की हलचल का न होना निंदा चुगली न करना सब प्राणियों पर दया सांसारिक विषयों में न ललचाना शास्त्र विरुद्ध आचरण में ल’जा और चपलता का अभाव। तेज, छमा, धैर्य, शुद्ध किसी में भी शत्रुभाव का न होना ये सभी भगवान ने दैवीय गुणों को प्राप्त करने के लक्षण बताए। गीता में भगवान ने पर्यावरण के विषय में भी बहुत कुछ कहा-पर्यावरण का अर्थ है हमारे चारों ओर का आवरण अर्थात जिस परिवेश में हम रहते हैं उसके चारों ओर का वातावरण जिनका हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में हमारे देश का पर्यावरण अत्यंत दूषित है। यदि हम इसके कारणों पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि ईश्वर और प्रकृति से जो भी साधन हमें उपहार स्वरूप प्राप्त हुए हैं उसका सदुपयोग कम अपितु दुरुपयोग अधिक करने के कारण संपूर्ण पर्यावरण दूषित हो गया। भगवान श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण भगवत गीता में समता और संतुलन की बात कही है। पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए जो भी तत्व प्रकृति द्वारा प्रदत्त हैं उन्हें भारतीय संस्कृति में देवतुल्य कहा गया है। वे कहते हैं-मैं ही हवन रूप क्रिया और अग्नि हूं।  मैं ’योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं। नक्षत्रों का स्वामी चंद्रमा हूं। वृक्षों में मैं पीपल हूं। मैं ही पंच महायज्ञ स्मार्त कर्म रूपी यज्ञ हूं। नदियों में श्री भागीरथी गंगा हूं। पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूं।

वास्तव में भगवद्गीता को अक्सर सभी विषयों का संग्रह कहा जाता है, क्योंकि इसमें धर्म, दर्शन, विज्ञान, राजनीति, सामाजिक नीति, मनोविज्ञान और आध्यात्मिकता जैसे कई क्षेत्रों के मूल सिद्धांत समाहित हैं।  हर अध्याय एक विशिष्ट प्रश्न या समस्या से शुरू होता है (जैसे अर्जुन का संशय) और फिर उस प्रश्न के उत्तर में विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों को जोड़ता है। ज्ञान, कर्म और भक्ति को एक ही मार्ग के तीन पहलू के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार मार्ग चुन सके। गीता के सिद्धांत किसी विशेष समय, स्थान या समुदाय तक सीमित नहीं, वे सार्वभौमिक मानव जाति को संबोधित है।  जिस आदमी ने श्रीमद्गभगवद गीता का पहला उर्दू अनुवाद किया वह था मोहम्मद मेहरुल्लाह, बाद में उन्होंने सनातन धर्म अपना लिया।

पहला व्यक्ति जिसने श्रीमद्गभगवद गीता का अरबी भाषा में अनुवाद किया वो एक फिलिस्तीनी थे अल फतेह कमांडो जिन्होंने बाद में जर्मनी में इस्कॉन जॉइन किया और अब हिंदुत्व का काम करते हैं। पहला व्यक्ति जिसने इंग्लिश अनुवाद किया उनका नाम चाल्र्स विलिक्नोस था उन्होंने भी बाद में हिन्दू धर्म अपना लिया, उसका तो ये तक कहना था कि दुनिया में केवल हिंदुत्व बचेगा, हिब्रू में अनुवाद करने वाला व्यक्ति बजाशीतिओं ले फनाह नाम का इसरायली था। जिसने बाद में हिंदुत्व अपना लिया था। पहला व्यक्ति जिसने रूसी भाषा मे अनुवाद किया उसका नाम था नोविकोव जो बाद में भगवान श्रीकृष्ण के भक्त बन गए। ये है सनातन धर्म और इसके धार्मिक ग्रंथों की ताकत और हम हिंदू इन्हें स्वयं ही नहीं पढ़ते हैं। अर्जुनविषादयोग से सांख्य कर्मज्ञान कर्मसंयासयोग भक्ति योग से मोक्ष संन्यास योग तक सभी कल्याण की इक्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा भक्ति पूर्वक अपने घर परिवार में ब‘चों को अर्थ और भाव के अध्ययन कराएं और स्वयं भी इसका पठन करते हुए भगवान के अज्ञानुसार दुर्लभ मनुष्य सरूर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।

लेखक: प्रांत संगठन मंत्री संस्कृत भारती मध्य भारत प्रांत भोपाल, मध्यप्रदेश हैं
यह लेखक के निजी विचार हैं।

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