हर रविवार नेता नगरी, ब्यूरोक्रेसी की अंदर की खबरों का सफर सुशील शर्मा की कलम के साथ
By: Star News
Jul 27, 202512:13 PM
"सामान पहले निकला, आदेश बाद में आया!"
मंत्रालय के इतिहास में पहली बार ऐसा वाकया घटा, जिसने सबको चौंका दिया। पांचवें माले पर एक महोदय का कक्ष दिन चढ़ते ही खाली होने लगा, पूरे दफ्तर में कानाफूसी शुरू हो गई "क्या हो रहा है भाई?" कक्ष से फाइलें समेटी जा रही थीं, कुर्सी को ऐसे घूरा जा रहा था जैसे वो अब किसी और की होने वाली हो और अलमारी ने तो खुद ही मानो विदाई ले ली हो। सबसे मजेदार बात यह कि तबादले का आदेश अभी आया नहीं था! लेकिन ऊपर वाले ही नहीं, बल्कि नीचे वालों को शायद पहले ही ‘फील’ हो गया था! शाम तक माहौल ऐसा बन गया जैसे किसी टीवी सीरियल में क्लाइमेक्स चल रहा हो, और रात को आदेश आ भी गया "अधिकारी महोदय का ट्रांसफर..." अब सवाल ये उठता है कि क्या पांचवें माले में ज्योतिष भी है? या फिर वहां की दीवारें भी कुछ सुन और कह लेती हैं? जो भी हो, यह घटना मंत्रालयी गलियारों में अब एक किस्से की तरह घूम रही है“आदेश बाद में आया, पैकिंग पहले हो गई!”
साहब आ गए… पर कक्ष नहीं मिला!"
पांचवे फ्लोर का हाल इन दिनों ऐसा है जैसे किसी हिट शादी में मेहमान ज्यादा और कुर्सियां कम हों। नई बिल्डिंग भले ही चमचमाती हो, लेकिन यहां का “कक्ष प्रबंधन” खुद ही वेटिंग लिस्ट में है! ताजा घटनाक्रम में एक अधिकारी महोदय बड़े ठाठ से तबादला होकर आए। सोचा होगा—"अब तो नई बिल्डिंग में AC, डबल रैक, और लहराते पर्दों वाला चैंबर मिलेगा!"लेकिन अफ़सोस, स्वागत फूल-मालाओं से नहीं, कक्ष संकट से हुआ! दुखियारे साहब को पुराने भवन में बिठाया गया है, क्योंकि नई बिल्डिंग में "कक्ष सब बुक्ड" हैं। यानी कुर्सी है, मेज़ है... पर कमरा नहीं... अंदर की बात ये है... अब चूंकि नए साहब को कक्ष चाहिए, तो मंत्रालय में एक और 'कक्षीय विस्थापन योजना' पर मंथन शुरू हो गया है। सूत्रों की मानें, तो जल्द ही किसी और अधिकारी की ‘फाइल’ पांचवे माले से सीधे ग्राउंड फ्लोर या ट्रांसफर एक्सप्रेस में सवार हो सकती है। पांचवे फ्लोर की हवा भी इन दिनों कुछ बदली-बदली है। हर अफसर अपना दरवाज़ा देखकर सोच रहा है— "मेरे कक्ष की प्लेट तो अभी तक बाहर लगी है… हटाया तो नहीं गया?"अब सबकी निगाहें हैं उस पर जिसे बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा।
"मेरा क्या होगा… और मेरे जुड़वों का?"
मप्र की ब्यूरोक्रेसी से कर्मचारी राजनीति में सक्रिय बड़े साहब रिटायर होने वाले हैं! दरअसल, ये वही साहब हैं जिनकी वर्ग विशेष की कर्मचारी राजनीति के कारण अच्छे से दाल गलती रही है। हर सरकार में बात बनती रही है। कहते हैं, कर्मचारियों के नाम पर अपना नेटवर्क ऐसा फैलाया कि खुद सरकार भी उलझ जाए। अब साहब के विदाई की घड़ी नजदीक आ रही है, तो सवाल उठ रहे हैं "क्या साहब सीधे घर जाएंगे या कोई नया पद, नया बोर्ड, या कोई ‘सलाहकार समिति’ उन्हें गोद ले लेगी?" उधर, साहब के करीबी कर्मचारी भी हलकान हैं! कोई कह रहा है—"भैया, साहब के बिना फाइलें चलेंगी कैसे?" तो कोई फुसफुसा रहा है—"अब ट्रांसफर-पोस्टिंग की गर्मी कौन संभालेगा?" कुछ तो यहां तक पूछ बैठे—"क्या अब हमें भी ‘रिटायर भाव’ में जीना होगा?" वैसे, साहब को भी शायद अब यही चिंता खा रही है— "कहीं ऐसा न हो कि मंत्रालय से सीधा गृह-प्रवेश करवा दिया जाए!"
"फॉर्मूला तेरा... लाभ किसी और का"
सरकारी व्यवस्था में अक्सर ऐसा होता है कि परिश्रम कोई करता है और पुरस्कार किसी और की झोली में गिरता है। गले की फांस बने लंबित प्रमोशन को निकालने के लिए प्रमोशन का नया फार्मूला निकाला गया। बड़े साहब के मातहत अधिकारी ने तन-मन से फार्मूला तैयार किया। आंकड़ों से लेकर संभावनाओं तक, हर पहलू पर शोध किया। उम्मीद थी कि इस नवाचार से न केवल सिस्टम बेहतर होगा, बल्कि उसका करियर ग्राफ भी ऊपर जाएगा। लेकिन जैसे ही प्रस्ताव साहब के हाथों में पहुँचा, उसमें कुछ शब्दों की सज्जा बदली गई, प्रस्तुति में थोड़ी नयापन जोड़ा गया और मुखिया के समक्ष यह "नवीन सोच" के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया। मुखिया प्रसन्न हुए। साहब की सराहना हुई और उन्हें एक प्रतिष्ठित पदस्थापना का तोहफा मिल गया। उधर, जिसने फॉर्मूला तैयार किया था, वह अब भी उसी कुर्सी पर है थोड़ा मौन, थोड़ा खिन्न। शिकायत कर नहीं सकते इसलिए जो भी उनके पास आता है अपना कड़वा अनुभव साझा करते हुए सीख देने लगते हैं कि "सिर्फ काम करना ही काफी नहीं होता, ज़रूरी है कि उसका श्रेय लेने की स्कीम भी साथ में बनाकर आगे बढ़ना जरूरी है।
"वकील भी, नेता भी तो बात भी खरी-खरी!"
इन महोदय को लोग यूं ही नहीं जानते, कहते हैं जो बोलते हैं, वो सीधे दिल और दस्तावेज दोनों में दर्ज हो जाता है! अब भला हों भी क्यों न, एक तो वकालत का तजुर्बा और ऊपर से राजनीति का तड़का! ऐसे में बात गोलमोल कैसे हो सकती है? कांग्रेस के हालिया चिंतन शिविर में जब सब कुछ 'नपे-तुले' अंदाज़ में चल रहा था, तभी इन्होंने सीधा निशाना साधते हुए युवा कांग्रेस के चुनावों पर सवाल उठा दिए। बिलकुल कोर्टरूम वाले अंदाज़ में तर्क दिया "चुनाव की प्रक्रिया से जो दरारें बनती हैं, वो न संगठन भूलता है, न कार्यकर्ता!" अब ये तो किसी ने खुलकर कहने की हिम्मत ही नहीं की थी! इशारा साफ था कि प्रदेश में चल रहे युवा कांग्रेस चुनाव की खींचतान और उसमें पैदा हो रही खेमेबाजी की तरफ। इतना ही नहीं, इन्होंने पिछली कांग्रेस की व्यापम आंदोलन की याद दिलाते हुए कहा कि अब वैसे आंदोलन खड़ा कर पाना आसान नहीं है...मतलब बात सिर्फ चुनाव नहीं, ऊर्जा और एकजुटता की भी थी। बात तो सौ फीसदी दमदार थी,लेकिन सवाल ये है कि क्या हाईकमान और उनके रणनीतिकार इसे सुनना भी चाहेंगे? क्योंकि अक्सर खरी बात सुनने वाले के मूड पर भारी पड़ जाती है। अपना तो मानना है कि जब वकील बोल रहा हो, तो बात मान लेने में ही भलाई है वरना अगली सुनवाई मुश्किल हो सकती है!
"चलो… सुनने का धैर्य तो दिखा!"
राजनीति में अगर कोई चीज सबसे दुर्लभ मानी जाती है, तो वह है कड़वी बात सुनने का धैर्य। और अगर बात नेता की हो, वो भी मंच-माइक से दूर, चारदीवारी के भीतर, तो फिर उम्मीदें और भी कम हो जाती हैं, लेकिन इस बार कांग्रेस के चिंतन शिविर में एक अलग ही नज़ारा देखने को मिला। दिल्ली से पधारे सूचना तंत्र के मुखिया फुर्सत के कुछ पलों में कुछ नेताओं से सहज संवाद कर रहे थे, तभी वहां पहुंचे एक पुराने, खाँटी, अनुभव-संवर्धित कांग्रेसी बुजुर्गवार। और फिर शुरू हुई उनकी बक-बक… बक-बक नहीं, बल्कि खरी-खोटी का एक ऐसा दस्तावेज, जिसमें कांग्रेस को उसके ही अतीत का आईना दिखाया जा रहा था। एक पल को तो माहौल कुछ तनावपूर्ण लगा। सबको लगा"अब बस... बुजुर्गवार की खैर नहीं!" लेकिन दिल्ली वाले साहब सयाने निकले, बजाय रोकने के, उन्होंने कुरेद-कुरेदकर सुनना शुरू किया। उनके इस धैर्य को देखकर माहौल भी बदल गया। प्रदेश प्रभारी, विंध्य के कद्दावर नेताजी, और अन्य पदाधिकारी भी कान खोलकर सुनने लगे।शायद सभी को अंदर ही अंदर लग रहा था कि इन खरी बातों में कोई पुराना, लेकिन असरदार फार्मूला छुपा हो जो पार्टी को फिर से खड़ा कर दे! इस पूरे वाकये से एक बात तो साफ है कभी-कभी सच्चाई को सुन लेने का धैर्य, संगठन को वहां पहुंचा सकता है, जहां सिर्फ नारों से नहीं पहुंचा जा सकता!