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विंध्य में कांग्रेस जातिवाद की आग में झुलसी, भाजपा संतुलन साधकर बना रही बढ़त

रीवा-सतना समेत विंध्य की राजनीति में कांग्रेस जातिवादी असंतोष से जूझ रही है। ब्राह्मण नेतृत्व की अनदेखी से संगठन कमजोर होता दिख रहा है, जबकि भाजपा हर जाति को प्रतिनिधित्व देकर मजबूत होती जा रही है।

By: Star News

Sep 09, 20254:03 PM

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विंध्य में कांग्रेस जातिवाद की आग में झुलसी, भाजपा संतुलन साधकर बना रही बढ़त

हाइलाइट्स 

  • रीवा बैठक में कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं ने घटते प्रतिनिधित्व पर जताई नाराजगी।
  • विंध्य की राजनीति में जातिगत समीकरण तय करते हैं चुनावी नतीजे।
  • भाजपा ने संगठन और सत्ता में जातीय संतुलन साधकर कांग्रेस पर बढ़त बनाई।

सतना, स्टार समाचार वेब

विंध्य समेत समूचे प्रदेश में सत्ता की दौड़ से बाहर हुई कांग्रेस के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं। एक ओर जहां पदाधिकारियों की नियुक्ति को लेकर  सतना समेत कई प्रदेश के जिलों में असंतोष के स्वर मुखर हो रहे हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के भीतर जातिवाद की आग भी सुलगने लगी है जिसकी तपिश बीते दिनों रीवा में महसूस की गई है। जिस कांग्रेस क ी नींव धर्म निरपेक्षता की नंीव पर रखी गई थी उसी कांग्रेस में जातिवाद को लेकर उपजी एक नई किस्म की लड़ाई ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या कांग्रेस अपना मूल स्वरू्प खोती जा रही है। राष्टÑीय स्तर पर जाति की गणना कराने का राग अलाप रही कांग्रेस के भीतर ही अब जाति की लड़ाई मुखर होने से विंध्य में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है। 

रीवा से खुला मोर्चा, प्रदेश में कांग्रेस के पास ब्राम्हण चेहरा नहीं 

कांग्रेस में जातिवाद की लड़ाई का मोर्चा रीवा से खोला गया है जिसमें सतना समेत समूचे संभाग के  ब्राम्हण नेता रीवा में एकजुट हुए। इस दौरान कांग्रेस में ब्राम्हणों के घटते प्रतिनिधित्व पर चिंता जताई गई। बैठक में मौजूद नेताओं का कहना था कि आला कमान द्वारा हाल ही में की गई पदाधिकारियों की नियु्ित में भी ब्राम्हण नेतृत्व को हासिए पर रख दिया गया है। जिस कांग्रेस के विंध्य में कई जिलाध्यक्ष थे उसमें अब केवल एक को नियुक्ति दी गई है। सतना जिले की बात करें तो कांग्रेस ने ब्राम्हण नेतृत्व का तो सूपड़ा  ही  साफ कर दिया है और जिले के सबसे अधिक मतदाता वर्ग को किसी पद में जगह नहीं दी गई है। इस बात पर भी चिंता जाहिर की गई कि कांग्रेस के पास सबसे बड़े मतदाता वर्ग ब्राम्हण का कोई चेहरा प्रदेश में नहीं है, जबकि कभी श्रीनिवास तिवारी जैसे चेहरे ब्राम्हण वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे।  संभवत: यही कारण है कि ब्राम्हण संगठन कांग्रेस से दूर होते जा रहे हैं। बहरहाल रीवा में आयोजित हुई बैठक के प्रभाव कांग्रेसी राजनीति में क्या होंगे , यह तो वक्त तय करेगा लेकिन पार्टी के भीतर सिर उठा रहे ऐसे विवाद कांग्रेस की चाल को और अधिक सुस्त कर सकते हैं। 

विंध्य में यूं साधी जाती हैं जातियां

विंध्य में जातिगत समीकरण बनाने के कई हथकंडे अपनाए जाते हैं। पहले तो जातियों की छोटी-छोटी बैठकें कर कसमें खिलाई जाती थीं। बाद में एक बड़े वोट बैंक के सामने जातीय मुद्दों को आगे कर लड़ा जाने लगा। इसके बाद प्रत्याशी की जाति से ही चुनाव जोड़ा जाने लगा और अपने वर्ग को लाभ दिलाने और आगे बढ़ाने की बात की जाती है। वर्तमान में तो सोशल मीडिया से जातिवादी मुद्दे और धर्म को आगे कर भी चुनाव साधे जाते हैं।

जातीय लहर पर ही मिला था बसपा को पहला सांसद, इन चुनावों में दिखा था जाति का असर

सतना जिले में कुछ चुनाव ऐसे रहे  हैं जिन पर जातिवाद का घोर असर बताया जाता है। सबसे चर्चित 1996 में हुआ लोकसभा का वह चुनाव है जिसमें भाजपा से वीरेंद्र सखलेचा, तिवारी कांग्रेस से अर्जुन सिंह और बसपा से सुखलाल प्रसाद मैदान में थे। सखलेचा को बाहरी मानते हुए अर्जुन सिंह और सुखलाल कुशवाहा में सीधा मुकाबला हो गया था। उस वक्त एक साप्ताहिक मैग्जीन में अर्जुन सिंह के पुत्र अजय का बयान चर्चा का विषय बनाया गया। इसके बाद जातिवाद की चाशनी में डूबा दूसरा बड़ा चुनाव विधानसभा का लालता प्रसाद खरे और बृजेन्द्रनाथ पाठक का माना जाता है। इसमें भी पाठक को जाति का काफी फायदा मिला था। 90 के बाद के दशक में सबसे ज्यादा जातिवादी चर्चित चुनावों में शंकरलाल तिवारी निर्दलीय, मांगेराम गुप्ता बीजेपी और सईद अहमद कांग्रेस के बीच का माना जाता है। इस चुनाव में भी जातियां खुल कर सामने आ गईं थीं। जातीय लहर पर सवार भीम सिंह 1991 में बसपा से देश के पहले सांसद बने। यह वह दौर था जब बसपा पूरी तरह जातीयता की ही राजनीति पर चुनाव मैदान में थी। धीरे-धीरे जाति की राजनीति ने विंध्य के हर जिलों में अपना प्रभाव तेज किया। आज स्थिति यह है कि हर विधानसभा में अपनी अपनी जाति के आधार पर चुनाव को प्रभावित किया जा रहा है।

कभी दो ध्रुवीय राजनीति गढ़ते थे ब्राम्हण-क्षत्रिय, अब हासिए पर 

विंध्य की कांग्रेसी राजनीति में कभी ब्राम्हण व क्षत्रियों की तूती बोलती थी और दोनो ही वर्ग विंध्य में दो धु्रुवीय राजनीति गढ़ते थे। इसका सबसे चर्चित उदाहरण रही है विंध्य के कुंवर अजु्रन सिंह और श्रीनिवास तिवारी की जोड़ी। बेशक वे राजनीतिक प्रतिद्वंदी थे लेकिन उनकी प्रतिद्वंदिता ने कांग्रेस को यहां मजबूती प्रदान की। वह दौर कांग्रेस का स्वर्णिम काल था। सतना व रीवा की राजनीति में श्रीनिवास तिवारी और अर्जुन सिंह का गहरा असर रहा है। जबकि उस दौर में अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी और गुलशेर अहमद सतना की राजनीति में गहरा प्रभाव रखते थे ।  जातीय समीकरण की क्रिया से सामने आई प्रतिक्रिया से ही गुलशेर अहमद का कद बढ़ा और वे ब्राह्मण वर्ग के नेता बन गए। उन्हें पंडित गुलशेर अहमद कहा जाने लगा। जातीय समीकरण का यह प्रयोग भाजपा ने भी शुरू किया और  रामानंद सिंह पर दांव लगाया जो सफल रहा। इसी समीकरण से वर्तमान सांसद गणेश सिंह भी सतना की  राजनीति में स्थापित हुए। अर्जुन सिंह की हार और राजाराम त्रिपाठी को सपा से मिले वोटों को भी जातिगत आधार पर देखा जाता है। राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि  विंध्य के चुनावों में अब जाति और धर्म बड़े पैमाने पर असर करते हैं। मध्यप्रदेश में तो सबसे ज्यादा रीवा, सतना, और सीधी में जातिगत समीकरण के आधार पर चुनाव लड़ा जाता है। यहां ब्राह्मण, ठाकुर, पटेल जाति के लोग चुनावी समीकरण बनाते और बिगाड़ते हैं। बीच-बीच में वोटकटवा के रूप में वैश्य, कुशवाहा सहित कुछ अन्य जाति वर्गों के समीकरण भी बैठाए जाते हैं।  पिछले  चुनाव में ही देखें तो नागौद, मैहर, सतना, रामपुर में इसका सीधा और तीखा प्रभाव देखने को मिला  है। 

इसीलिए भाजपा मार रही बाजी 

जहां कांग्रेस जातिवाद की खींचतान से कमजोर पड़ रही है, वहीं भाजपा लगातार जातीय संतुलन साध रही है। संगठनात्मक नियुक्तियों से लेकर मंत्री मंडल तक, भाजपा ने हर प्रमुख जाति को हिस्सेदारी दी है। यही वजह है कि ब्राह्मण, ठाकुर और पटेल समेत कई वर्ग भाजपा के साथ मजबूती से खड़े नजर आते हैं। इसके उलट कांग्रेस में एक ही वर्ग का वर्चस्व दिखने पर अन्य समुदाय असंतोष पाल लेते हैं। रीवा की बैठक में यही असंतोष खुलकर सामने आया। विंध्य की राजनीति हमेशा से सत्ता का सेमीफाइनल मानी जाती रही है। यहां की सीटों का गणित पूरे मध्यप्रदेश पर असर डालता है। ऐसे में कांग्रेस यदि अपने भीतर उठे जातिवादी असंतोष को दूर नहीं करती, तो उसका अस्तित्व और कमजोर हो सकता है। भाजपा इस असंतोष का लाभ उठाकर अपनी जड़ें और मजबूत कर सकती है। कांग्रेस को चाहिए कि वह जातिगत प्रतिनिधित्व में संतुलन बनाए और अपने मूल स्वरूप की ओर लौटे, वरना विंध्य की सियासत में उसका नाम केवल अतीत की कहानियों में ही दर्ज होकर रह जाएगा।

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