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बकरीद (ईद-उल-अज़हा) 2025: कुर्बानी और इत्तफ़ाक़ का अज़ीम त्योहार

7 जून 2025 को भारत में मनाई जा रही बकरीद (ईद-उल-अज़हा) का त्योहार, इसके महत्व, कुर्बानी के मायने और प्रेम व भाईचारे के पैगाम को विस्तार से जानें। यह इस्लामिक त्योहार कैसे हज़रत इब्राहिम के बलिदान और अल्लाह के प्रति उनकी अटूट निष्ठा की याद दिलाता है।

By: Star News

Jun 07, 202513 hours ago

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बकरीद (ईद-उल-अज़हा) 2025: कुर्बानी और इत्तफ़ाक़ का अज़ीम त्योहार

आज, 7 जून 2025 को हिंदुस्तान में बकरीद (ईद-उल-अज़हा) का अज़ीम त्योहार बड़े जोश-ओ-ख़रोश से मनाया जा रहा है। ये इस्लाम के सबसे अहम त्योहारों में से एक है, जिसे आम ज़बान में 'कुर्बानी की ईद' भी कहते हैं। ये त्योहार पैगंबर हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की बेमिसाल कुर्बानी और अल्लाह तआला पर उनके पुख़्ता ईमान की याद में मनाया जाता है।

बकरीद की अहमियत (बकरीद का महत्व)

  • कुर्बानी की रूह (कुर्बानी का प्रतीक): ये त्योहार हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के उस वाक़ये की याद दिलाता है, जब उन्होंने अल्लाह सुब्हानहु व तआला के हुक्म पर अपने लाडले बेटे हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम की कुर्बानी देने का इरादा कर लिया था। अल्लाह ने उनकी निष्ठा और बेपनाह मोहब्बत से खुश होकर इस्माइल अलैहिस्सलाम की जगह एक दुंबे को भेज दिया। ये वाक़या इताबार (त्याग), अल्लाह पर यक़ीन (ईश्वर में विश्वास) और तस्लीम (समर्पण) का एक आला तरीन मिसाल है। ये हमें सिखाता है कि अल्लाह की राह में कोई भी कुर्बानी बड़ी नहीं होती।

  • तक्सीम और भाईचारा (साझा करना और भाईचारा): बकरीद पर कुर्बानी के बाद गोश्त को तीन हिस्सों में तक़सीम किया जाता है - एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए, दूसरा ग़रीबों और मोहताजों के लिए और तीसरा हिस्सा अज़ीज़ों और दोस्तों के लिए। ये रस्म समाज में मुसावात (समानता), खैरात (दान) और भाईचारे के जज़्बे को परवान चढ़ाने में मदद करती है। ये बताता है कि ईद सिर्फ़ अपनी ख़ुशी का नाम नहीं, बल्कि दूसरों की ख़ुशी का भी नाम है।

  • रूहानी अहमियत (आध्यात्मिक महत्व): ये दिन मुसलमानों के लिए अल्लाह का शुक्र अदा करने, नमाज़ अदा करने और अपनी रूह को पाक करने का भी एक ख़ास मौक़ा है। इस रोज़ नेकियां कमाने और सवाब हासिल करने की फ़ज़ीलत बहुत ज़्यादा है।

बकरीद मनाने का तरीक़ा (बकरीद कैसे मनाई जाती है)

बकरीद के दिन मुसलमान सुबह सवेरे उठकर गुस्ल (स्नान) करते हैं, नए कपड़े पहनते हैं और ईदगाह या मस्जिदों में ख़ास नमाज़-ए-ईद अदा करने जाते हैं। नमाज़ के बाद, जो लोग माली तौर पर सक्षम होते हैं, वो अल्लाह के नाम पर भेड़, बकरे या दीगर हलाल जानवरों की कुर्बानी देते हैं। इस कुर्बानी के गोश्त को फिर ऊपर बताए गए तरीक़े से तक़सीम किया जाता है। लोग एक-दूसरे के घरों में जाते हैं, मुबारकबाद देते हैं और लज़ीज़ पकवानों का लुत्फ़ उठाते हैं।

ये त्योहार सिर्फ़ एक मज़हबी रस्म नहीं, बल्कि ये मुस्लिम समुदाय में प्यार, इत्तेहाद (एकता) और सदभाव (सद्भाव) को मज़बूत करता है। ये हमें याद दिलाता है कि हम सब एक हैं और एक-दूसरे के काम आना ही असली इबादत है।

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