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By: Ajay Tiwari
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By: Ajay Tiwari
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लोकमान्य तिलक पुण्यतिथि: एक राष्ट्रनिर्माता की अमर गाथा
स्टार समाचार वेब. फीचर डेस्क
हर साल 1 अगस्त का दिन भारत के एक महान सपूत, राष्ट्रवाद के प्रखर नेता और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी योद्धा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि के रूप में मनाया जाता है। 1 अगस्त, 1920 को मुंबई में उन्होंने अंतिम सांस ली थी, लेकिन उनके विचार और उनका दिया हुआ नारा "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा" आज भी हर भारतीय को प्रेरित करता है। महात्मा गांधी ने उन्हें 'आधुनिक भारत का निर्माता' कहा था, जबकि जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें 'भारतीय क्रांति का जनक' बताया था। उनकी पुण्यतिथि पर हम उनके जीवन, संघर्ष और राष्ट्र निर्माण में उनके अमूल्य योगदान को याद करते हैं।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा का महत्व
बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के चिखली गाँव में हुआ था। उनका मूल नाम केशव गंगाधर तिलक था। वे आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली भारतीय पीढ़ी के सदस्य थे। गणित और संस्कृत में उनकी गहरी पकड़ थी। तिलक ने हमेशा शिक्षा की शक्ति पर विश्वास किया और युवाओं को शिक्षित होने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि एक अशिक्षित समाज कभी जागरूक और स्वतंत्र नहीं हो सकता। इसी विचार के साथ उन्होंने शिक्षा के प्रसार के लिए कई संस्थानों की स्थापना की, जिनमें 'न्यू इंग्लिश स्कूल' प्रमुख है।
"लोकमान्य" की उपाधि और उग्र राष्ट्रवाद
तिलक को जनता ने "लोकमान्य" की उपाधि दी, जिसका अर्थ है 'लोगों द्वारा स्वीकृत नेता'। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 'गरम दल' के प्रमुख नेता थे और 'लाल-बाल-पाल' की तिकड़ी का हिस्सा थे। उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा उग्र थी और वे अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का खुलकर विरोध करते थे। अंग्रेजों ने उन्हें 'भारतीय अशांति के जनक' (Father of Indian Unrest) कहकर पुकारा, जो उनके प्रभाव और संघर्ष का ही प्रमाण था।
स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान
तिलक का योगदान केवल राजनीतिक विरोध तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई:
'स्वराज' की मांग: वे पूर्ण स्वराज्य के सबसे पहले और सबसे मुखर समर्थक थे। उनका नारा "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है..." ने लाखों भारतीयों में स्वतंत्रता की अलख जगाई।
स्वदेशी आंदोलन: उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने और स्वदेशी उत्पादों को अपनाने का आह्वान किया। यह आंदोलन आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
सार्वजनिक उत्सवों का आयोजन: उन्होंने समाज को एकजुट करने और राष्ट्रवादी भावना को जगाने के लिए 'गणेश चतुर्थी' और 'शिवाजी जयंती' जैसे सार्वजनिक उत्सवों की शुरुआत की।
पत्रकारिता: उन्होंने 'केसरी' (मराठी) और 'मराठा' (अंग्रेजी) जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश शासन की आलोचना की और लोगों में राजनीतिक चेतना पैदा की।
तिलक ने भारतीय समाज में फैली कुप्रथाओं, जैसे बाल विवाह और सती प्रथा, का भी जमकर विरोध किया और शिक्षा के माध्यम से समाज सुधार की वकालत की।
लोकमान्य तिलक का जीवन एक राष्ट्रप्रेमी, शिक्षक, पत्रकार और समाज सुधारक के रूप में हमें यह सिखाता है कि राष्ट्र की सेवा केवल राजनीतिक मोर्चे पर ही नहीं, बल्कि शिक्षा और सामाजिक सुधारों के माध्यम से भी की जा सकती है। उनकी पुण्यतिथि हमें उनके दिखाए गए मार्ग पर चलने और एक मजबूत, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए प्रेरित करती है।
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