भारत की गोंड पेंटिंग, मधुबनी, कलमकारी और कठपुतली जैसी पारंपरिक लोक कलाएं आधुनिकता के दौर में विलुप्त होने के कगार पर हैं। जानें इन कलाओं का महत्व, इनके सामने चुनौतियाँ और संरक्षण के लिए हो रहे प्रयास।
By: Star News
Jun 16, 20257 hours ago
स्टार समाचार वेब.
भारत, एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी पहचान उसकी अतुल्य सांस्कृतिक विविधता में निहित है। सदियों से यहाँ की लोक कलाएं, इस विविधता की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति रही हैं। गोंड पेंटिंग की रहस्यमयी कहानियां, मधुबनी की जीवंत रेखाएं, कलमकारी के विस्तृत चित्रण, पटचित्रों की धार्मिक गाथाएं, और कठपुतली कला की मनोरंजक प्रस्तुतियां – ये सभी हमारी समृद्ध विरासत के अनमोल रत्न हैं। ये कलाएं केवल दृश्य सौंदर्य का माध्यम नहीं, बल्कि समुदायों की जीवनशैली, उनके विश्वासों, इतिहास और सामूहिक स्मृतियों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोए रखने वाली जीवित परंपराएं हैं।
भारत की लोक कलाएं सिर्फ दीवारों या कपड़ों पर उकेरी गई आकृतियाँ मात्र नहीं हैं; वे कहानियाँ कहती हैं, दर्शन सिखाती हैं, और क्षेत्रीय पहचान को परिभाषित करती हैं। चलिए कुछ लोक कलाएं आपके सामने रख रहे हैं। ये कलाएं स्थानीय समुदायों की आर्थिक रीढ़ भी रही हैं, जो कारीगरों को आजीविका प्रदान करती हैं और उन्हें अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने में मदद करती हैं।
गोंड पेंटिंग: मध्य प्रदेश के गोंड समुदाय द्वारा बनाई जाने वाली यह कला प्रकृति, जीवन और आध्यात्मिक विश्वासों को दर्शाती है। इसके बिंदु और रेखाएं प्रकृति के साथ सामंजस्य को प्रतिबिंबित करती हैं।
मधुबनी (मिथिला कला): बिहार की यह कला अपने चमकीले रंगों और ज्यामितीय पैटर्न के लिए जानी जाती है, जो अक्सर देवी-देवताओं, प्रकृति और सामाजिक आयोजनों को चित्रित करती है। यह महिलाओं द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित एक जीवंत परंपरा है।
कलमकारी: आंध्र प्रदेश की यह हाथ से पेंट की गई या ब्लॉक-प्रिंटेड सूती वस्त्र कला है, जो पौराणिक दृश्यों और लोक कथाओं को जीवंत करती है।
पटचित्र: ओडिशा और पश्चिम बंगाल की यह स्क्रॉल पेंटिंग कला है, जो अक्सर धार्मिक और पौराणिक आख्यानों को दर्शाती है।
कठपुतली कला: राजस्थान की कठपुतली कला, अपनी रंगीन वेशभूषा और नाटकीय प्रस्तुतियों के माध्यम से लोककथाओं और वीरता की कहानियों को सुनाती है।
हमारी ये बहुमूल्य लोक कलाएं कई गंभीर खतरों का सामना कर रही हैं, जो इनके अस्तित्व के लिए चुनौती बन रहे हैं। कारणों की बात करें तो बदलते समय में युवा पीढ़ी इन पारंपरिक कला रूपों से दूर हो रही है। आधुनिक शिक्षा और शहरी जीवनशैली की ओर झुकाव ने उन्हें अपने पुश्तैनी कौशल को सीखने और उसमें महारत हासिल करने से रोक दिया है। कई कला रूपों को सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों से पर्याप्त समर्थन नहीं मिलता। उचित दस्तावेजीकरण, अनुसंधान और प्रचार-प्रसार की कमी के कारण वे धीरे-धीरे गुमनामी में खो रहे हैं। कई कारीगरों को अपनी कला के लिए उचित मूल्य नहीं मिल पाता। बिचौलियों द्वारा शोषण और बाजार तक सीधी पहुंच न होने के कारण, कला को आजीविका का स्थायी साधन बनाना मुश्किल हो गया है। मशीनों द्वारा सस्ती नकलें तैयार होने से हस्तनिर्मित उत्पादों की मौलिकता और मूल्य कम हो रहा है, जिससे कारीगरों का मनोबल गिरता है। बुजुर्ग कारीगरों के बाद उनके कौशल को आगे बढ़ाने वाली नई पीढ़ी की कमी एक बड़ी चुनौती है।
इन चुनौतियों के बावजूद, हमारी लोक कलाओं को बचाने के लिए देश और विदेश दोनों जगह प्रयास भी हो रहे हैं। प्रयासों से कामयाबी की बात करे तो स्कृति मंत्रालय, कपड़ा मंत्रालय और विभिन्न राज्य कला अकादमियां हस्तशिल्प मेलों, प्रदर्शनियों और कार्यशालाओं का आयोजन कर रही हैं। भौगोलिक संकेत टैग जैसी पहलें भी विशिष्ट कला रूपों की पहचान और संरक्षण में मदद कर रही हैं। ई NGO कारीगरों को प्रत्यक्ष बाजार पहुंच प्रदान करने, प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने और उनके उत्पादों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। वे कला को आधुनिक डिजाइन में एकीकृत करने में भी मदद करते हैं ताकि यह समकालीन ग्राहकों के लिए आकर्षक हो। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और ई-कॉमर्स वेबसाइटें कारीगरों को विश्व स्तर पर अपने उत्पादों को बेचने का अवसर दे रही हैं, जिससे बिचौलियों की भूमिका कम हो रही है और उन्हें उचित मूल्य मिल रहा है। सांस्कृतिक पर्यटन के माध्यम से पर्यटक इन कलाओं और उनके रचनाकारों से सीधे जुड़ सकते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। कुछ शिक्षण संस्थान अब लोक कलाओं को अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर रहे हैं, जिससे युवा पीढ़ी इन कला रूपों को सीख सके।
कुल मिलाकर लोक कलाएं केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की पहचान भी हैं। उनका संरक्षण केवल कला रूपों को बचाना नहीं है, बल्कि उन समुदायों को सशक्त बनाना है जो उन्हें जीवित रखते हैं, और एक राष्ट्र के रूप में हमारी आत्मा को बचाना है। यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम इन अनमोल कला रूपों को पहचानें, उनका सम्मान करें और उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित करें ताकि भारत की सांस्कृतिक विविधता अपनी पूरी महिमा में चमकती रहे।