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'प्लेटफार्म' नामक यह तीखा व्यंग्यात्मक लेख करन उपाध्याय द्वारा लिखा गया है, जिसमें बताया गया है कि किस तरह कुछ 'छोटे साहब' रेलवे को अपनी निजी संपत्ति की तरह चला रहे हैं। टिकट कन्फर्म हो या चाय-पानी, हर सेवा 'अपनों' के लिए। वहीं आम जनता आज भी वेटिंग लिस्ट में ठगी सी बैठी है।
By: Yogesh Patel
Jul 18, 2025just now
छोटे साहब की बड़ी सेवा
रेलवे में कुछ छोटे साहब ऐसे हैं जो अपनों की चिंता में ही रेलवे सेवा का धर्म निभा रहे हैं। कहते हैं, ह्य आपकी टिकट कन्फर्म नहीं है? कोई बात नहीं, हम करा देंगे। सफर में कोई दिक्कत? चाय-पानी की भी व्यवस्था हो जाएगी। ऐसा लगता है मानो रेलवे बोर्ड ने इनको स्पेशल पॉवर दे रखें हो इसके लिए। वहीं, आम आदमी का टिकट वेटिंग में रह जाए तो वह टीसी के पास जाकर उसके अनुनय विनय करने पर उसे ऐसा झन्नाटेदार जवाब मिलेगा.. जैसे उसने कोई गुनाह कर दिया हो। टीसी, अटेंडेंट, स्टेशन मास्टर, सभी को साहब ने पहले से ह्यसमझा ह्ण रखा है। खास ख्याल रखना जिसका हम कह रहे हैं। यात्री को ऐसा लगता है जैसे वह रेलवे का नहीं, बल्कि साहब की प्राइवेट 'चार्टर्ड ट्रेन' का यात्री बन गया है।
जब समय बलवान, तब वे पहलवान
विंध्य क्षेत्र के एक माननीय की रेलवे कृपा भी इन दिनों खूब चर्चा में है। कहते हैं कि उनके यहां कोई भी आए, एप्लीकेशन तैयार, मुहर तैयार और टिकट पक्का। जिसकी किस्मत में सीट नहीं थी, वो भी एसी में सफर करता हुआ दिखाई देता है। यह चर्चा आम है जब समय बलवान होता है, तो कोई भी पहलवान होता है। सत्ता में रहो तो नियम कायदे अपनी जेब में और जनता पूछे तो जवाब मिलता है कि अरे भाई, पॉलिसी है।
मांगें पुरानी, जवाब सरकारी
रीवा से मुंबई तक की ट्रेन की वर्षों पुरानी मांग आज भी रेलवे ट्रैक की तरह अधूरी पड़ी है। जब यात्रियों ने विंध्य के एक पार्टी कार्यकर्ता से पूछा कि तुम्हारे माननीय में दम नहीं है क्या? तो कार्यकर्ता भौंहे चढ़ाते हुए बोला ऐसा क्यों कह रहे हो? जवाब मिला दम होता, तो रीवा-मुंबई की ट्रेन अब तक शुरू हो गई होती। जवाब में वही घिसा-पिटा डायलॉग कि सेंट्रल रेलवे पर ट्रैफिक ज्यादा है। अरे भैया, अगर ट्रैफिक की बात है तो बिहार से मुंबई के लिए ट्रेनें कैसे धड़धड़ाती जा रही हैं, क्या रीवा के लिए ही सेंट्रल रेलवे का ट्रैफिक है? या फिर वहां के माननीय वाकई पहलवान हैं?
गति शक्ति या कछुआ गति?
प्लेटफार्म नंबर एक पर अगर आपने दो साल पुराना स्टेशन रि-डेवलपमेंट प्लान देखा हो, तो आप जान जाएंगे कि बड़े-बड़े वादे कैसे प्लेटफार्म पर ही दम तोड़ते हैं। योजना थी कि दो साल में सतना स्टेशन का कायाकल्प हो जाएगा, ले-आउट बन चुका था, मॉडल लगा दिया गया था, और हर नेता ने आकर वादा किया कि अबकी बार, सब कुछ बदल देंगे। अब हालत यह है कि ले-आउट के पास खड़े लोग खुद मजाक में कहते हैं कि ये है गतिशक्ति की कछुआ गति। स्टेशन वही है, समस्याएं वही हैं, सिर्फ घोषणाएं बदलती रहती हैं। नाम है गतिशक्ति, और गति ऐसी जैसे लोको पायलट खुद चाय पीने गया हो।
पटरियों से उतर रहा भरोसा
रेलवे एक ऐसा आईना बन चुका है जिसमें सत्ता के चेहरे की साफ परछाई दिखाई देती है। जहां अपनों के लिए ट्रेन सुपर फास्ट है, वहां जनता अब भी वेटिंग लिस्ट में बैठी है। साहब के चपरासी की मुहर से टिकट मिलता है और आम यात्री की अर्जी रद्दी की टोकरी में पड़ी रहती है। हो सकता है यह बातें कुछ लोगों को चुभें, लेकिन यह भी सत्य है कि जब रेलवे जैसी सार्वजनिक सेवा अपनों की सेवा बन जाए, तो जनता का भरोसा धीरे-धीरे पटरियों से उतरने लगता है।