प्रो. रवीन्द्रनाथ तिवारी अपने लेख में कहते हैं कि भारत की 79 वर्षों की स्वाधीनता यात्रा अब वास्तविक स्वतंत्रता की ओर अग्रसर है। वे बताते हैं कि राजनीतिक आज़ादी पर्याप्त नहीं, बल्कि शिक्षा, न्याय, अर्थव्यवस्था और संस्कृति में ‘स्व’ के तंत्र की स्थापना ही असली राष्ट्रनिर्माण है। अमृतकाल का संकल्प भारत को विश्वगुरु पद पर प्रतिष्ठित करने का है।
By: Yogesh Patel
प्रो. रवीन्द्रनाथ तिवारी
भारत अपनी स्वाधीनता के 79वें वर्ष के गौरवशाली पड़ाव पर पहुंच कर ‘अमृतकाल’ की यात्रा पर अग्रसर है। यह अमृतकाल केवल एक कालखंड नहीं, अपितु हमारे राष्ट्रीय प्रेम, सौहार्द और अध्यात्म की गौरवशाली परंपराओं के प्रकाश में स्वतंत्रता के वास्तविक मर्म को आत्मसात करने का एक संकल्प पर्व है। यह महोत्सव उन अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर है, जिनके शौर्य, पराक्रम और बलिदान से हमें आजादी मिली, और साथ ही यह उन राष्ट्र निर्माताओं को भी समर्पित है, जिनकी दूरदर्शिता और परिश्रम ने भारत को विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। यह राष्ट्र के पुनर्जागरण, विश्वगुरु पद पर पुन: प्रतिष्ठित होने तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम' के मंत्र के साथ वैश्विक शान्ति, समग्र विकास एवं मानवता के कल्याण का उद्घोष है।
यह शाश्वत सत्य है कि किसी राष्ट्र का गौरव तभी जागृत एवं देदीप्यमान रहता है, जब वह अपने त्याग, स्वाभिमान, बलिदान और राष्ट्र प्रेम की परंपराओं को अपनी आने वाली पीढ़ी को संस्कारित करता है। भारत की स्वाधीनता की गाथा ऐसे ही असंख्य बलिदानों से सिंचित है। 1857 की क्रांति में मंगल पाण्डेय, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे से लेकर लाला लाजपत राय, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने मां भारती के स्वाभिमान के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। वहीं लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, वीर सावरकर, महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस जैसे महानायकों के योगदान अविस्मरणीय एवं अद्वितीय हैं। देश के विभिन्न अंचलों में हुए जनजातीय आन्दोलनों, चाहे वह भील आन्दोलन हो या मुंडा क्रांति, ने भी स्वतंत्रता की ज्वाला को प्रचंड बनाए रखा।
स्वतंत्रता के पश्चात, संविधान के अंतर्गत नियोजित विकास के आधार पर देश में एक सुदृढ़ नींव रखी गई। पिछले 78 वर्षों में भारत ने लगभग सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। आर्यभट्ट से शुरू हुआ हमारा अंतरिक्ष अभियान आज चंद्रयान-3 की ऐतिहासिक सफलता के साथ आकाश की अनंत ऊंचाइयों को छू रहा है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने वाला पहला देश बनकर भारत ने अपनी तकनीकी क्षमता, नवाचार और दृढ़ संकल्प का परचम पूरे विश्व में लहराया है। मिसाइलमैन डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने मिसाइल प्रौद्योगिकी में देश को अग्रणी बनाया। यह सफलता केवल एक वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं, अपितु 140 करोड़ भारतीयों के सामर्थ्य और 'आत्मनिर्भर भारत' के विजन का प्रतीक है। हाल ही में, पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में भारतीय सेना ने 'आॅपरेशन सिंदूर' के तहत अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया। भारत की मिसाइल क्षमता ने यह साबित कर दिया कि वह न केवल दुश्मन के इलाके में घुसकर सटीक हमला कर सकता है, अपितु अपने हवाई क्षेत्र को भी किसी भी खतरे से बचाने में पूरी तरह सक्षम है।
आर्थिक और सामाजिक विकास में भी भारत विश्व के अग्रणी देशों में शामिल है। आज भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अनुमान है कि जल्द ही यह तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। डिजिटल क्रांति ने भारत की तस्वीर बदल दी है। आज दूर-दराज के गांवों में भी लोग यूपीआई के माध्यम से सहजता से लेनदेन कर रहे हैं। यह डिजिटल अर्थव्यवस्था न केवल पारदर्शिता ला रही है, अपितु वित्तीय समावेशन को भी बढ़ावा दे रही है, जो भारत को एक सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। वैश्विक मंच पर भी भारत की भूमिका बदली है। उपरोक्त उपलब्धियों के विश्लेषण के पश्चात यह मूल प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या आजादी के इतने वर्षों बाद देश में 'स्व' का तंत्र पूर्ण रूप से स्थापित हो पाया है? 'स्व-तंत्र' का अर्थ केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, अपितु अपनी जड़ों से जुड़ी शिक्षा, अपनी मौलिकता पर आधारित अर्थतंत्र, अपनी संस्कृति के अनुरूप समाज और अपनी आवश्यकताओं पर केंद्रित न्यायतंत्र की स्थापना है।
'स्व' के तंत्र की स्थापना की दिशा में हाल ही में उठाए गए कदम अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी हैं। दशकों से चली आ रही औपनिवेशिक मानसिकता की प्रतीक, मैकाले की शिक्षा पद्धति से मुक्ति की दिशा में 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020' एक क्रांतिकारी कदम है। इसका उद्देश्य भारत-केंद्रित, लचीली और समग्र शिक्षा प्रदान करना है जो विद्यार्थियों को केवल किताबी ज्ञान नहीं, अपितु कौशल और संस्कार भी दे। इसी प्रकार, न्याय प्रणाली में इस दिशा में एक ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1860 के भारतीय दंड संहिता, 1898 के दंड प्रक्रिया संहिता और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम को समाप्त कर उनकी जगह भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लागू करना एक साहसिक और आवश्यक कदम है। यह परिवर्तन केवल कानूनों के नाम बदलना नहीं, अपितु न्याय की अवधारणा को 'दंड' से 'न्याय' की ओर ले जाना है। इसका लक्ष्य त्वरित, सुलभ और नागरिक-केंद्रित न्याय प्रणाली स्थापित करना है, जो भारतीय समाज की आत्मा के अनुरूप हो। यह वैचारिक दासता से मुक्ति की दिशा में एक मील का पत्थर है।
अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु हमें सकल घरेलू उत्पाद के साथ-साथ 'सकल राष्ट्रीय सुख' पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा। आत्मनिर्भर उद्यम और स्वावलंबी गांव ही सशक्त भारत की नींव बन सकते हैं। गरीबी और बेरोजगारी जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ समयबद्ध कार्य योजना की आवश्यकता है। राष्ट्र के प्रति समर्पण, त्याग और 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' का भाव जब प्रत्येक भारतीय के मन में स्थापित होगा, तभी सच्चे अर्थों में 'स्व' का तंत्र स्थापित हो सकेगा। हमें अपनी सोच, अपनी नीतियों और अपने कार्यों में 'स्व' के गौरव को जागृत करना होगा, ताकि जब हम स्वाधीनता की शताब्दी मनाएं, तो एक ऐसा भारत विश्व के समक्ष हो, जो न केवल आर्थिक और तकनीकी रूप से शक्तिशाली हो, अपितु सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से भी दुनिया का मार्गदर्शन कर रहा होगा।
(लेखक, प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय रीवा में प्राचार्य हैं)
(अस्वीकरण: व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)