जयराम शुक्ल अपने लेख में बताते हैं कि असली राष्ट्रप्रेम तिरंगा रैली निकालने या दिखावे से नहीं, बल्कि अपने-अपने दायित्व को ईमानदारी और निष्ठा से निभाने में है। शहीद पद्मधर सिंह से लेकर कैप्टन विक्रम बत्रा तक के बलिदान का स्मरण करते हुए वे कहते हैं कि तिरंगा आचरण में दिखना चाहिए, आवरण में नहीं।
By: Yogesh Patel
जयराम शुक्ल
इन दिनों तिरंगा अभियान चल रहा है, घर-घर तिरंगा, हर घर तिरंगा। यह उत्सव मनाने की भारतीय अदा है। कई महकमे अपना मूल काम छोड़कर तिरंगा रैली निकाल रहे हैं। रेप की रिपोर्ट बाद में लिखेंगे, अभी दरोगा-मुंशी जी के साथ तिरंगा लहराने निकले हैं। परिवहन विभाग वालों ने भी अपने एक दिन के अतिरिक्त कमाई के टर्नओवर को तिलांजलि देकर तिरंगा यात्रा निकालने की ठानी है। तय तो यह था कि तिरंगा विशेष प्रकार के खादी के सूत से बुने कपड़े के बनेंगे। तिरंगे के सम्मान के लिए कठिन ध्वजसंहिता भी बनी है। अब न तो हथकरघा बचे और न ही खादी। सो जहां से मिले, जैसे भी मिले तिरंगा होना चाहिए भले ही वह अंबानी की मिलों के कपड़े का हो।
हमारे देश में यह अच्छा चलन है। आवरण दिखे, भले ही उसके भीतर का आचरण गायब रहे। कबीर तो बहुत पहले ही ऐसे कर्मकांडों पर लिख गए- मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा।
कायदे से मन को तिरंगे से रंगना चाहिए तन को नहीं। इसके प्रति सम्मान और श्रद्धा भीतर से आनी चाहिए। इलेक्शन वाच और एडीआर की रिपोर्ट कहती है कि संसद और विधानसभाओं में आधे-आध अपराधिक प्रवृति के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। एक बार जो एमपी- एमएलए हो जाता है व अपने तीन पुश्तों का भविष्य साध लेता है। मंत्री हो गया तो कहना ही क्या, सात पुश्तों की चिंता से मुक्त। ये सभी लोग तिरंगे के दाएं खड़े होकर संविधान और देश सेवा की शपथ लेते है। तिरंगा बेचारा फहरता हुआ देखता ही रह जाता है। कुछ कर नहीं पाता। तिरंगे की कहानी और मर्म से किसको लेना देना। जिनको लेना देना है वे कभी मुखपृष्ठ पर नहीं आते। तिरंगे की आन-बान-शान के लिए कितने न शहीद हुए होंगे। आज उनके घरों में उजाला है या अंधेरा किसको देखने की फुर्सत पड़ी है।
12 अगस्त 1942 को अपने सतना के (कृपालपुर) पद्मधर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गेट पर शहीद हो गए। उनके हाथों में तिरंगा था और जुबां पर वंदेमातरम। अंगे्रजों की पुलिस ने तिरंगा छोड़ने को कहा- पद्मधर सिंह सीना तानकर दुनिया ही छोड़ने को तत्पर हो गए, तिरंगा को झुकने नहीं दिया। पुलिस ने सीने पर थ्री-नॉट-थ्री की गोली उतार दी। पद्मधर सिंह धरती पर गिरे लेकिन तिरंगे को गिरने नहीं दिया।
कारगिल के टाइगर हिल में तिरंगा फहराते हुए जवानों की तस्वीर सामने आती है तो उनके प्रति गर्व से मस्तक ऊंचा हो जाता है। भावनाओं में देशप्रेम का जज्बा तरंगित होने लगता है। टाइगर हिल पर तिरंगे की पताका फहराने वाला 26 साल का जवान कैप्टन विक्रम बत्रा था..'ये दिल मागे मोर' कहते हुए प्राण त्याग दिए.. भारतमाता की एक इंच जमीन पर भी दुश्मन को टिकने नहीं दिया। भारत छोड़ो आंदोलन के अमर शहीद पद्मधर सिंह और कारगिल के परमवीर कैप्टन विक्रम बत्रा जैसे बलिदानी एक नहीं असंख्य है। तिरंगे की रक्तिम आभा उन्हीं के पराक्रम से सुर्खरू है। तिरंगे को लेकर जिसके ह्रदय में पद्मधर सिंह और कैप्टन विक्रम बत्रा सी भावना नहीं है उसे तिरंगा लहराने का क्या छूने तक का अधिकार नहीं है।
तिरंगा की रैलियों को प्रायोजित करने वाले अपने दिलपर हाथ रखकर पूछें कि उनमें क्या ऐसी भावना है..? जिस दिन हर देशवासी के ह्दय में ऐसी भावना आ जाएगी उसी दिन से यह देश वैभव और शौर्य के स्वर्णिम शिखर की अग्रसर होना शुरू हो जाएगा। हमारे देश की हर लोकतांत्रिक संस्था के कंगूरे में यह तिरंगा फहरता है। उसके नीचे हमारे नीति नियंता क्या करते हैं बताने की जरूरत नहीं। लोकतंत्र की पवित्र संस्थाएं घोड़ामंडी और मच्छी बाजार में बदल गई हैं। यहां सांसद-विधायक सभी खरीदे-बेंचे जाते हैं। कारपोरेट और कैपटिलिस्टों के लिए उनका जमीर बिकने के लिए शो-केस में सजा दिखता है।
अपने सूबे में पंचायत व स्थानीय निकाय के चुनाव हुए। सदस्यों को कैसे बाड़ाबंद करके रिसार्ट और फाइवस्टार में रुकवाया गया, यह ग्रासरूट लेवल के लोकतंत्र का नया कल्ट है। किसने इनपर इतनी रकम खर्च की होगी..? उस रकम की भरपाई कैसे और कहाँ से होगी..? बताने की जरूरत नहीं।
आम आदमी महंगाई-बेरोजगारी और ऊपर से टैक्स के बोझ से दबा है। हमारे बच्चे इंदौर की सड़कों में पिछले चार साल से चप्पल चटका रहे हैं, पीएससी की परीक्षाएं क्लियर नहीं हो रही। तरुण-युवा-छात्र अवसाद में हैं। जनप्रतिनिधियों की घोड़ामंडी सजाने वालों को इतनी फुर्सत नहीं कि इनकी दशा को समझें। सबको चांद चाहिए अल्बेयर कामू के अमर खलपात्र 'कालीगुला' की तरह। पंचायत से लेकर संसद तक प्राय: हर किसी की आत्मा में एक कालीगुला बैठा है। बात संविधान की करता है, वंदेमातरम बोलता है, तिरंगा लहराता है लेकिन यह उसका आवरण मात्र है, आचरण जो है सामने है।
इसी ढोंगतंत्र पर कबीर प्रहार करते हैं- मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा। कहीं से ढूंढ कर पूरा पद पढ़िएगा जरूर। बेबाकी के साथ खरी-खरी कहने वाला ऐसा फकीर आज के दौर में दुर्लभ है। कबीर अपने दौर के जीवंत मीडिया थे। एक यह मीडिया है जो सिर्फ किए-धरे पर रायता फैलाता है और चों-चों करता है। इसके-उसके तोते की भूमिका में। उसे इंडिया दिखता है, भारत नहीं। तिरंगा-संविधान-लोकतंत्र सभी उसके लिए इवेंट है। तिलक- पराडकर- विद्यार्थी -माखनलाल सभी ने मीडिया का तिरंगा ध्वज फहराया। उन्हें तिरंगे का मोल मालूम था। और इन्हें तिरंगा इवेंट्स की टीआरपी से मतलब है।
अपने यहां देशप्रेम के ऐसे 'इवेंट' जब तब होते रहते हैं। मेरी पीढ़ी के लोगों ने 1969 में गांधी-शताब्दी का भी जश्न देखा है। मैं तब तीसरी कक्षा में था। स्कूल के बच्चों को एक घंटे सूत कातना अनिवार्य कर दिया गया था। ऊंची दर्जा के छात्र चरखा चलाते थे। गांव के बनियों का धंधा चल निकला। वे चरखा और तकली और रुई की पोनी बेंचने लगे। हम बच्चों के लिए तकली एक फिरंगीनुमा एक खिलौना सा था।
लेकिन सूत कातते और रोज क्लास टीचर के पास जमा कर देते। देशभर की स्कूलों को मिलाकर कितना सूत इकट्ठा हुआ होगा सालभर में, हिसाब लगा सकते हैं। उस सूत से कपड़े तो नहीं ही बने होगे, क्योंकि सन 70 तक आते-आते गांवों का हथकरघा उद्योग मर चुका था। बड़ी मिलों से पापलीन, लट्ठा और लंकलाट आने लगे थे। बुनकर, रंगरेज, छीपी सबकी जीविका छिन चुकी थी। सरकार को बुनकरों, रंगरेंजों और छीपियों को कार्यकुशल बनाना चाहिए था लेकिन गांधीगीरी के कर्मकांड के चलते बच्चों को तकली थमा दी।
जब मैं आठवीं में पहुंचा तो स्कूल के एक कबाड़ भरे कमरे में गांधी शताब्दी में काते हुए सूत का जखीरा देखा जो सड़ चुके थे, जाले लग चुके थे उनमें। तब तक गांधीजी कुछ-कुछ समझ में आ चुके थे। यह सब देखकर कभी गांधी जी के बारे में सोचता तो कभी अपने हेडमास्टर साहब के बारे में, क्योंकि तबतक वो सूती कपड़ों से तरक्की करके टेरीकॉट और टेरीलीन के पैंटबुशर्ट और कोट-टाई तक पहुंच चुके थे।
अपने देश में हर कर्म ऐसे ही शुरू होते हैं जो आगे चलकर कान्ड में बदल जाते हैं। मैं यकीन के साथ कह रहा हूं कि तिरंगा फहराने का कर्म भी कुछ ऐसा ही है जो कल गाँधी शताब्दी जैसे कान्ड में बदलने वाला है।
हमें देशभक्ति के मायने अब तक अच्छे से नहीं समझाएं गए। वास्तव में राष्ट्रप्रेम तो वह है कि जिसका जो काम है उसे निष्ठा व ईमानदारी से करे। अब पुलिस वाले बिना घूस लिए रिपोर्ट लिख लें, निर्दोष को न फंसाएं और अपराधी को छोड़ें नहीं चाहे वह भले ही प्रधानमंत्री का बेटा हो, समाज को अपराध मुक्त रखें इससे बड़ा राष्ट्रप्रेम क्या होगा। ऐसे लोगों को तिरंगा रैली निकालकर देशप्रेम प्रदर्शित करने की जरूरत नहीं।
स्कूल समय पर लगें, अध्यापक मनोयोग से पढ़ाएं, छात्र संस्कारिक बने, खूब पढ़े, सदाचार और समाजसेवा समझें तो फिर इनके लिए तिरंगा रैली क्या मायने रखेगी। आज जो अधिसंख्य सरकारी अध्यापक हैं वे पढ़ाने का मूल काम छोड़कर सब करना चाहते हैं। कर्म को कान्ड बनने से रोकिए! जिसका जो काम है..चाहे वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का हो, सरकारी मुलाजिमों का हो, व्यवसाइयों का, किसानों का हो, पुलिस, डाक्टर और वकील का हो यदि ये सब पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं तो यही असली राष्ट्रप्रेम है, देशभक्ति है..इसी भावना को पुनजार्गृत व मजबूत करने की जरूरत है..। जरूरी तो यह है कि प्रतिदिन हम तिरंगे के मर्म को समझें, उसकी आन-बान-शान में मर मिटने वाले लोगों का स्मरण करें, उनके पराक्रम के गौरवगान को नई पीढ़ी को सुनाएं..तब भला अलग से किसी अभियान की जरूरत ही क्यों पड़ेगी।
(अस्वीकरण: व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)