आमिर खान की आइकॉनिक फिल्म 'गुलाम' (1998) आज भी दर्शकों के दिलों में अपनी खास जगह बनाए हुए है। जानिए कैसे इस कल्ट क्लासिक फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई और क्यों इसके गाने, एक्शन और आमिर का परफॉरमेंस आज भी लोगों को याद है। 'आती क्या खंडाला' से लेकर रोमांचक ट्रेन चेज़ तक, 'गुलाम' की हर बात जो उसे बनाती है एक सदाबहार फिल्म।
By: Star News
Jun 19, 20252 hours ago
मुंबई. स्टार समाचार वेब
साल 1998 में रिलीज़ हुई आमिर खान की फ़िल्म 'गुलाम' सिर्फ एक मूवी नहीं, बल्कि एक जुनून और बगावत का प्रतीक थी. विक्रम भट्ट के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म ने आमिर के कॅरियर को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और दर्शकों के दिलों में हमेशा के लिए जगह बना ली. 'गुलाम' ने सड़कों की अनकही कहानियों को आवाज़ दी और हमें एक ऐसा नायक दिया जो भले ही कमज़ोर दिखता हो, लेकिन अंदर से बेहद मज़बूत था.
इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर शानदार प्रदर्शन किया और साल 1998 की सातवीं सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म बनी. आइए जानते हैं वो पाँच ख़ास वजहें जो 'गुलाम' को आज भी एक 'मस्ट वॉच' बनाती हैं और शायद इसे दोबारा देखने की तलब जगा देती हैं:
आमिर खान ने फ़िल्म में 'सिद्धार्थ मराठे' के किरदार को सिर्फ़ निभाया नहीं, बल्कि जिया. एक ऐसा युवा जो अपनी सच्चाई से भागता है, लेकिन परिस्थितियाँ उसे नायक बनने पर मजबूर कर देती हैं. आमिर की बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी और उनकी आँखों में छिपा डर व गुस्सा, आज भी फ़िल्म प्रेमियों को अंदर तक झकझोर देता है.
जब आमिर खान ने ख़ुद इस गाने को गाया, तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि यह बॉलीवुड का एक एंथम बन जाएगा. अलका याग्निक के साथ उनका यह गाना आज भी हर कॉलेज-गोइंग कपल की प्लेलिस्ट में मिल जाएगा. इसकी चुलबुली केमिस्ट्री, मस्तीभरे बोल और आमिर की आवाज़ आज भी दिल जीत लेती है.
शायद ही कोई सिनेमा प्रेमी होगा जिसने 'गुलाम' का वो मशहूर ट्रेन सीन न देखा हो — जहाँ आमिर एक तेज़ रफ़्तार ट्रेन की ओर दौड़ते हैं और ठीक वक़्त पर ट्रैक से कूद जाते हैं. इस स्टंट में कोई बॉडी डबल या VFX का इस्तेमाल नहीं किया गया था; आमिर ने इसे ख़ुद किया था. यह दृश्य आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे वास्तविक और रोंगटे खड़े कर देने वाले पलों में से एक माना जाता है.
'डर के आगे भी जीत होती है क्या?', 'मैं भाई के लिए कुछ भी कर सकता हूँ.' — ऐसे डायलॉग्स सिर्फ़ याद नहीं रखे जाते, बल्कि ज़िन्दगी के मुश्किल पलों में प्रेरणा बन जाते हैं. 'गुलाम' ने सिर्फ़ एक कहानी ही नहीं सुनाई, बल्कि अपने शब्दों के ज़रिए भावनाओं का एक तूफ़ान खड़ा कर दिया.
गज़ब का क्लाइमेक्स
'गुलाम' का अंत सिर्फ़ एक क्लाइमैटिक फ़ाइट नहीं थी, यह किरदार की आत्मा की मुक्ति थी. जब आमिर डर को पीछे छोड़कर सच्चाई के लिए खड़े होते हैं, तो लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. यह उस 'भीतर के विद्रोही' की कहानी थी जो समाज में अक्सर चुप रहता है — लेकिन एक दिन, वह चुप्पी ही उसका सबसे बड़ा हथियार बन जाती है.